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________________ [ ज्ञाताधर्मकथा ३७२] रज्जू छिन्ना । तसे तेयलिपुत्ते महइमहालयसिलं गीवाए बंधइ, बंधित्ता अत्थाहमतारमपोरिसियंसि उदगंसि अप्पाणं मुयइ, तत्थ वि. से था जाए। तणं से तेयलिपुत्ते सुक्कंसि तणकूडंसि अगणिकायं पक्खिवड़, पक्खिवित्ता अप्पाणं मुइ, तत्थ वि य से अगणिकाए विज्झाए । तत्पश्चात् तेतलिपुत्र जहाँ उसका अपना वासगृह था और जहाँ शय्या थी, वहाँ आया। आकर शय्या पर बैठा। बैठ कर (मन ही मन ) इस प्रकार कहने लगा- 'मैं अपने घर से निकला और राजा के पास गया। मगर राजा ने आदर-सत्कार नहीं किया। लौटते समय मार्ग के भी किसी ने आदर नहीं किया। घर आया तो बाह्य परिषद् ने भी आदर नहीं किया, यावत् आभ्यन्तर परिषद् ने भी आदर नहीं किया, मानो मुझे पहचाना ही नहीं, कोई खड़ा नहीं हुआ। ऐसी दशा में मुझे अपने को जीवन से रहित कर लेना ही श्रेयस्कर है।' इस प्रकार तेतलिपुत्र ने विचार किया । विचार करके तालपुट विष - जो बहुत तीव्र, प्राणसंहारक होता है- अपने मुख डाला। परन्तु उस विष ने संक्रमण नहीं किया - असर नहीं किया । में तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने नीलकमल, (भैंस के सींग, नील गुटिका एवं अलसी के पुष्प ) के समान श्याम वर्ण की तलवार अपने कन्धे पर वहन की - तलवार का प्रहार किया, मगर उसकी धार कुंठित हो गई। तत्पश्चात् तेतलिपुत्र अशोकवाटिका में गया। वहाँ जाकर उसने अपने गले में पाश बाँधा - फाँसी लगाई। फिर वृक्ष पर चढ़ा । चढ़कर वह पाश वृक्ष से बाँधा। फिर अपने शरीर को छोड़ा अर्थात् लटका दिया। किन्तु रस्सी टूट गई- फाँसी नहीं लगी । तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने बहुत बड़ी शिला गर्दन में बाँधी । बाँध कर अथाह, न तिरने योग्य और अपौरुष ( कितने पुरुष प्रमाण है, यह न जाना जा सके ऐसे) जल में अपना शरीर छोड़ दिया। पर वहाँ वह जल थाह - छिछला हो गया। तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने सूखे घास के ढेर में आग लगाई और अपने शरीर को उसमें डाल दिया। मगर वह अग्नि भी बुझ गई। ४९ - तए णं से तेयलिपुत्ते एवं वयासी - 'सद्धेयं खलु भो समणा वयंति, सद्धेयं खलु भो माणा वयंति, सद्धेयं खलु भो समणा माहणा वयंति, अहं एगो असद्धेयं वयामि, एवं खलु । अहं सह पुत्ते अपुत्ते को मेदं सद्दहिस्सइ ? सह मित्तेहिं अमित्ते को मेदं सद्दहिस्सइ ? एवं अत्थेणं दारेणं जासेहिं परिजणेणं । एवं खलु तेयलिपुत्ते अमच्चेणं कणगज्झएणं रन्ना अवज्झाएणं समाणेणं तालपुडगे विसे आसगंसि पक्खित्ते, से वि य णो संकमइ, को मेदं सद्दहिस्सइ ? तेयलिपुत्ते नीलुप्पल जाव खंधन्सि ओहरिए, तत्थ वि य से धारा ओपल्ला, को मेदं सद्दहिस्सइ ?"
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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