SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 425
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६४] [ज्ञाताधर्मकथा इस वर्णन से स्पष्ट है कि भिक्षार्थ गमन करने से पूर्व साधु-साध्वी को वस्त्र-पात्रादि का प्रतिलेखनप्रमार्जन करना आवश्यक है, वे जिसकी निश्रा (नेसराय) में हों, उनकी आज्ञा प्राप्त करनी चाहिए तथा शीघ्र भिक्षाप्राप्ति के विचार से त्वरा या चपलता नहीं करनी चाहिए। भिक्षा के लिए धनी, निर्धन एवं मध्यम वर्ग के घरों में जाना चाहिए। भिक्षा का आगमोक्त समय तृतीय प्रहर है, यह भी इससे स्पष्ट हो जाता है, फिर भी इस विषय में देश-काल का विचार रखना चाहिए। ३०-एवं खलु अहं अज्जाओ! तेयलिपुत्तस्स पुव्वि इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा आसि, इयाणिं अणिट्ठा अप्पिया, अकंता अमणुण्णा अमणामा जाया। नेच्छइ णं तेयलिपुत्ते मम नामगोयमवि सवणयाए, किं पुण दंसणं वा परिभोगं वा? तं तुब्भे णं अजाओ सिक्खियाओ, बहुनायाओ, बहुपढियाओ, बहुणि गामागर जाव आहिंडह, राईसर जाव गिहाई अणुपविसह, तं अत्थि याइं भे अज्जाओ? केइ कहिंचि चुन्नजोए वा, मंतजोगे वा, कम्मणजोए वा, हियउड्डावणे वा, काउड्डावणे वा आभिओगिए वा, वसीकरणे वा, कोउयकम्मे वा, भूइकम्मे वा, मूले कंदे छल्ली वल्ली सिलिया वा, गुलिया वा, ओसहे वा, भेसज्जे वा उवलद्धपुव्वे जेणाहं तेयलिपुत्तस्स पुणरवि इट्ठा भवेजामि। 'हे आर्याओ! मैं पहले तेतलिपुत्र की इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मणाम-मनगमती थी, किन्तु अब अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, अमणाम हो गई हूँ। तेतलिपुत्र मेरा नाम-गोत्र भी सुनना नहीं चाहते, दर्शन और परिभोग की तो बात ही दूर! हे आर्याओ! तुम शिक्षित हो, बहुत जानकार हो, बहुत पढ़ी हो, बहुतसे नगरों और ग्रामों में यावत् भ्रमण करती हो, राजाओं और ईश्वरों-युवराजों आदि के घरों में प्रवेश करती हो तो हे आर्याओ! तुम्हारे पास कोई चूर्णयोग, (स्तंभन आदि करने वाला) मंत्रयोग, कामणयोग, हृदयोड्डायनहृदय को हरण करने वाला, काया का आकर्षण करने वाला, आभियोगिक-पराभव करने वाला, वशीकरण, कौतुककर्म-सौभाग्य प्रदान करने वाला स्नान आदि, भूतिकर्म-मंत्रित की हुई भभूत का प्रयोग अथवा कोई सेल, कंद, छाल, बेल, शिलिका (एक प्रकार का घास), गोली, औषध या भेषज ऐसी है, जो पहले जानी हुई हो? जिससे मैं फिर तेतलिपुत्र की इष्ट हो सकूँ ?' ३१-तए णं ताओ अज्जाओ पोट्टिलाए एवं वुत्ताओ समाणीओ दो वि कन्ने ठाइंति, ठाइत्ता पोट्टिलं एवं वयासी-'अम्हे णं देवाणुप्पिया! समणीओ निग्गंथीओ जाव' गुत्तबंभचारिणीओ, नो खलु कप्पइ अम्हं एयप्पयारं कनेहि वि निसामेत्तए, किमंग पुण उवदिसित्तए वा, आयरित्तए वा? अम्हे णं तव देवाणुप्पिया! विचित्तं केवलिपन्नत्तं धम्म परिकहिजामो।' ___ पोट्टिला के द्वारा इस प्रकार कहने पर उन आर्याओं ने अपने दोनों कान बन्द कर लिये। कान बन्द करके उन्होंने पोट्टिला से कहा-'देवानुप्रिये! हम निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ हैं, यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणियाँ हैं। अतएव ऐसे वचन हमें कानों से श्रवण करना भी नहीं कल्पता तो इस विषय का उपदेश देना या आचरण करना तो कल्प ही कैसे सकता है ? हाँ, देवानुप्रिये ! हम तुम्हें अद्भुत या अनेक प्रकार के केवलिप्ररूपित धर्म का भलीभाँति उपदेश दे सकती हैं। १. अ. १४ सूत्र २८
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy