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चौदहवाँ अध्ययन : तेतलिपुत्र]
[३६३ २८-तेणं कालेणं तेणं समएणं सुव्वयाओ नामं अज्जाओ ईरियासमियासो जाव [भासासमियाओ एसणासमियाओ आयाण-भंड-मत्त-णिक्खेवण समियाओ उच्चार-पासवणखेल सिंघाण-जल्ल-पारिट्ठावण-समियाओ मणसमियाओ, वइसमियाओ कायसमियाओ, मणगुत्ताओ, वइगुत्ताओ कायगुत्ताओ, गुत्ताओ गुत्तिंदियाओ] गुत्तबंभयारिणीओ बहुस्सुयाओ बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुरि चरमाणीओ जेणामेव तेयलिंपुरे नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता, अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हंति, ओगिण्हित्ता संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणीओ विहरंति।
उस काल और उस समय में ईर्या-समिति से युक्त यावत् [भाषसमिति, एषणासमिति, आदानभांड-मात्रनिक्षेपणसमिति, उच्चार-प्रस्रवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-परिष्ठापनसमिति से युक्त, मनसमिति, वचनसमिति, कायसमिति से सम्पन्न, मनोगुप्ति वचनगुप्ति और कायगुप्ति से युक्त, गुप्त तथा इन्द्रियों का गोपन करने वाली] गुप्त ब्रह्मचारिणी, बहुश्रुत, बहुत परिवार वाली सुव्रता नामक आर्या अनुक्रम से विहार करतीकरती तेतलिपुर नगर में आई। आकर यथोचित उपाश्रय ग्रहण करके संयम और तप से आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगीं।
२९-तए णं तासिं सुब्बयाणं अजाणं एगे संघाडए पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ जाव अडमाणीओ तेयलिपुत्तस्स गिहं अणुपविट्ठाओ। तए णं सा पोट्टिला ताओ अज्जाओ एजमाणीओ पासइ, पासित्ता हट्टतुट्ठा आसणाओ अब्भटेइ, अब्भुट्टित्ता वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं पडिलाभेइ, पडिलाभित्ता एवं वयासी
तत्पश्चात् उन सुव्रता आर्या के एक संघाड़े ने प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया और दूसरे प्रहर में ध्यान किया। तीसरे प्रहर में भिक्षा के लिए यावत् अटन करती हुई वे साध्वियाँ तेतलिपुत्र के घर में प्रविष्ट हुई पोट्टिला उन आर्याओं को आती देखकर हृष्ट-तुष्ट हुई, अपने आसन से उठ खड़ी हुई, वंदना की, नमस्कार किया और विपुल अशन पान खाद्य और स्वाद्य-आहार वहराया। आहार वहरा कर उसने कहा
विवेचन-प्रस्तुत सूत्र के 'पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ' के पश्चात् 'जाव' शब्द से विस्तृत पाठ का संकेत दिया गया है, जिसमें साधु-साध्वी के दैवसिक कार्यक्रम के कुछ अंश का उल्लेख है, साथ ही भिक्षा सम्बन्धी विधि का भी उल्लेख किया गया है। उस पाठ का आशय इस प्रकार है-'साध्वियों ने प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया, द्वितीय प्रहर में ध्यान किया, तीसरा प्रहर प्रारंभ होने पर शीघ्रता, चपलता और संभ्रम के बिना अर्थात् जल्दी से गोचरी के लिए जाने की उत्कंठा न रखकर निश्चिन्त और सावधान भाव से मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन किया, पात्रों और वस्त्रों की प्रतिलेखना की, पात्रों का प्रमार्जन किया तत्पश्चात् पात्र ग्रहण करके अपनी प्रवर्तिका सुव्रता साध्वी के निकट गई। उन्हें वन्दन-नमस्कार किया और भिक्षाचर्या के लिए तेतलिपुर नगर के उच्च, नीच एवं मध्यम घरों में जाने की आज्ञा माँगी।
सुव्रता साध्वी ने उन्हें भिक्षा के लिए जाने की अनुमति दे दी। तत्पश्चात् वे आर्यिकाएँ उपाश्रय से बाहर निकलीं। धीमी, अचंचल और असंभ्रान्त गति से गमन करती हुई चार हाथ सामने की भूमि-मार्ग पर दृष्टि रक्खे हुए-ईर्यासमिति से नगर में श्रीमन्तों, गरीबों तथा मध्यम परिवारों में भिक्षा के लिए अटन करने लगीं। अटन करती-करती वे तेतलिपुत्र के घर में पहुंची।