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________________ ३४६] [ज्ञाताधर्मकथा इमेयारूवाणंदा पुक्खरिणी चाउक्कोणा जाव पडिरूवा, जस्सणं पुरथिमिल्ले वणसंडे चित्तसभा अणेगखंभसयसन्निविट्ठा तहेव चत्तारि सहाओ जाव जम्मजीविअफले।' __ नन्दा पुष्करिणी में बहुत-से लोग स्नान करते हुए, पानी पीते हुए और पानी भरकर ले जाते हुए आपस में इस प्रकार कहते थे-'देवानुप्रिय! नन्द मणिकार धन्य है, जिसकी यह चतुष्कोण यावत् मनोहर पुष्करिणी है, जिसके पूर्व के वनखंड में अनेक सैकड़ों खंभों की बनी चित्रसभा है। इसी प्रकार चारों वनखंडों और चारों सभाओं के विषय में कहना चाहिए। यावत् नन्द मणिकार का जन्म और जीवन सफल है।' अर्थात् जनसाधारण नन्दा पुष्करिणी का, वनखंडों का, चारों सभाओं का और नन्द सेठ का खूब-खूब बखान करते थे। २६-तए णं तस्स दडुरस्स तं अभिक्खणं अभिक्खणं बहुजणस्स अंतिए एयमटुं सोच्चा णिसम्म इमेयारूवे अन्झथिए जाव समुप्पजेत्था-'से कहिं मन्न मए इमेयारूवे सद्दे णिसंतपव्वे.त्ति कटट सभेणं परिणामेणंजाव[ पसत्थेणं अज्झवसाएणंलेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहा-पोह-मग्गणं-गवेसणं करेमाणस्स संणिपुव्वे] जाइसरणे समुप्पन्ने, पुव्वजाइं सम्मं समागच्छइ।' ___ तत्पश्चात् बार-बार बहुत लोगों के पास से यह बात (अपनी प्रशंसा) सुनकर और मन में समझ कर उस मेंढ़क को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ–'जान पड़ता है कि मैंने इस प्रकार के शब्द पहले भी सुने हैं।' इस तरह विचार करने से, शुभ परिणाम के कारण, (प्रशस्त अध्यवसाय से, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं के कारण तथा जातिस्मरणज्ञान को आवृत करने वाले विशिष्ट मतिज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से, ईहा, अपोह (अवाय), मार्गणा, गवेषणा (सद्भूत धर्मों का विधान और असद्भूत धर्मों का निवारण) करते हुए उस दर्दुर को (संज्ञी-पर्याय के भवों को जानने वाला) यावत् जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हो गया। उसे अपना पूर्व जन्म अच्छी तरह याद हो आया। पुनः श्रावकधर्म-स्वीकार २७–तए णं तस्स ददुरस्स इमेयारूवे अज्झथिए आसव समुप्पजेत्था-'एवं खलु अहं इहेव रायगिहे नगरे णंदे णामं मणियारे अड्ढे।तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे, तए णं समणस्स भगवओमहावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइए सत्तसिक्खावइए जावपडिवन्ने। तएणं अहं अन्नया कयाई असाहुदंसणेण य जाव' मिच्छत्तं विप्पडिवन्ने।तएणं अहं अन्नया कयाई गिम्हकालसमयंसि जाव' उवसंपजित्ता णं विहरामि।एवं जहेव चिंता आपुच्छणा नंदा पुक्खरिणी वणसंडा सहाओ तं चेव सव्वं जाव नंदाए पुक्खरिणीए ददुरत्ताए उववन्ने। तं अहो! णं अहं अहन्ने अपुन्ने अकयपुन्ने निग्गंथाओ पावयणाओ नटे भट्ठे परिब्भटे, तं सेयं खलु ममं सममेव पुव्वपडिवन्नाइं पंचाणुव्वयाइं सत्तसिक्खावयाइं उवसंपजित्ताणं विहरित्तए।' तत्पश्चात् उस मेंढ़क को इस प्रकार विचार उत्पन्न हुआ-मैं इसी तरह राजगृहनगर में नंद नामक मणिकार सेठ था-धन-धान्य आदि से समृद्ध था। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर का १. अ. १३ सूत्र ९ २. अ. १३ सूत्र १०
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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