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________________ तेरहवाँ अध्ययन : दर्दरज्ञात] [३४१ पुरुष (शरीर का श्रृंगार आदि करने वाले पुरुष) जीविका, भोजन और वेतन देकर रखे गये थे। वे बहुत-से श्रमणों, अनाथों, ग्लानों, रोगियों और दुर्बलों का अलंकारकर्म (शरीर की शोभा बढ़ाने के कार्य) करते थे। १९-तएणंतीए णंदाए पोक्खरिणीए बहवेसणाहा य, अणाहा य, पंथिया य, पहिया य, करोडिया य, कारिया य, तणाहारा य, पत्तहारा य, कट्ठहारा य अप्पेगइया ण्हायंति, अप्पेगइया पाणियं पियंति, अप्पेगइया पाणियं संवहंति, अप्पेगइया विसज्जियसेय-जल्ल-मल्ल-परिस्समनिद्दखुप्पिवासा सुहंसुहेणं विहरंति। रायगिहविणिग्गओ वि जत्थ बहुजणो, किं ते ? जलरमण-विविह-मजण-कयलिलयाघरय-कुसुमसत्थरय-अणेगसउणगणरुयरिभितसंकुलेसुसुहंसुहेणं अभिरममाणो अभिरममाणो विहरइ। उस नंदा पुष्करिणी में बहुत-से सनाथ, अनाथ, पथिक, पांथिक, करोटिका (कावड़ उठाने वाले), घसियारे, पत्तों के भार वाले, लकड़हारे आदि आते थे। उनमें से कोई-कोई स्नान करते थे, कोई-कोई पानी पीते थे और कोई-कोई पानी भर ले जाते थे। कोई-कोई पसीने, जल्ल (प्रवाही मैल), मल (जमा हुआ मैल), परिश्रम, निद्रा, क्षुधा और पिपासा का निवारण करके सुखपूर्वक करते थे। . नंदा पुष्करिणी में राजगृह नगर से भी निकले-आये हुए बहुत-से लोग क्या करते थे? वे लोग जल में रमण करते थे, विविध प्रकार से स्नान करते थे, कदलीगृहों, लतागृहों, पुष्पशय्या और अनेक पक्षियों के समूह के मनोहर शब्दों से युक्त नन्दा पुष्करिणी और चारों वनखण्डों में क्रीड़ा करते-करते विचरते थे। विवेचन-नंद मणिकार ने अपने अष्टमभक्त पौषध के अन्तिम समय में तृषा से पीड़ित होकर पुष्करिणी खुदवाने का विचार किया। इससे पूर्व यह उल्लेख आ चुका है कि वह साधुओं के दर्शन न करने, उनका समागम न करने एवं धर्मोपदेश नहीं सुनने आदि के कारण सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्वी बन गया था। इस वर्णन से किसी को ऐसा भ्रम हो सकता है कि पुष्करिणी खुदवाना तथा औषधशाला आदि की स्थापना करना-करवाना मिथ्यादृष्टि का कार्य है-सम्यग्दृष्टि का नहीं, अन्यथा उसके मिथ्यादृष्टि हो जाने का उल्लेख करने की क्या आवश्यकता थी? किन्तु इस प्रकार का निष्कर्ष निकालना उचित नहीं है, यथार्थ भी नहीं है। यह तो नन्द के जीवन में घटित एक घटना का उल्लेख मात्र है। दूसरे, १०वें सूत्र में पोषध सम्बन्धी अनिवार्य नियमों का उल्लेख किया गया है, जिनमें एक नियम आरम्भ-समारम्भ का परित्याग करना भी सम्मिलित है। नन्द श्रेष्ठी को पोषध की अवस्था में आरम्भ-समारम्भ करने का विचार-चिन्तन-निश्चय नहीं करना चाहिए था। किन्तु उसने ऐसा किया और उसकी न आलोचना की, न प्रायश्चित्त किया। उसने एक त्याज्य कर्म को-पोषध-अवस्था में आरम्भ करने को अत्याज्य समझा, यह विपरीत समझ उसके मिथ्यादृष्टि होने का लक्षण है, परन्तु कुआ, बावड़ी आदि खुदवाना या दानशाला आदि परोपकार के कार्य मिथ्यादृष्टि के कार्य नहीं समझने चाहिए। साधुओं के लिए भी ऐसे परोपकार के कार्य करने का निषेध न करने का आगम-आदेश है। सूत्रकृतांगसूत्र प्रथम श्रुतस्कंध (अध्ययन ११) में ऐसा स्पष्ट उल्लेख है। इसके अतिरिक्त 'रायपसेणिय' सूत्र में कहा गया है कि राजा प्रदेशी जब अपने घोर अधार्मिक जीवन में परिवर्तन करके केशीकुमार श्रमण द्वारा धर्मबोध प्राप्त करके धर्मनिष्ठ
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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