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बारहवाँ अध्ययन : उदकज्ञात ]
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पर निकला और उसी परिखा के निकट से गुजरा। पानी की दुर्गन्ध से वह घबरा उठा। उसने वस्त्र से नाकमुँह ढक लिए। उस समय राजा ने पानी की अमनोज्ञता का वर्णन किया। साथियों ने उसका समर्थन कियां, किन्तु सुबुद्धि इस बार भी चुप रहा। जब उसी को लक्ष्य करके राजा ने अपना कथन बार-बार दोहराया तो उसने भी वही कहा जो स्वादु भोजन के सम्बन्ध में कहा था ।
इस बार राजा ने सुबुद्धि के कथन का अनादर करते हुए कहा - सुबुद्धि ! तुम्हारी बात मिथ्या है। तुम दुराग्रह के शिकार हो रहे हो और दूसरों को ही नहीं, अपने को भी भ्रम में डाल रहे हो ।
सुबुद्धि को राजा की दुर्बुद्धि पर दया आई। उसने विचार किया- राजा सत्य पर श्रद्धा नहीं करता, यही नहीं वरन् सत्य को असत्य मानकर मुझे भ्रम में पड़ा समझता है। इसे किसी उपाय से सन्मार्ग पर लाना चाहिए। इस प्रकार विचार कर उसने पूर्वोक्त परिखा का पानी मंगवाया और विशिष्ट विधि से ४९ दिनों में उसे अत्यन्त शुद्ध और स्वादिष्ट बनाया। उस विधि का विस्तृत वर्णन मूल पाठ में किया गया है। यह स्वादिष्ट पानी जब राजा के यहाँ भेजा गया और उसने पीया तो उस पर लट्टू हो गया। पानी वाले सेवक से पूछने पर उसने कहा—यह पानी अमात्य जी के यहाँ से आया है। अमात्य ने निवेदन किया- स्वामिन्! यह वही परिखा का पानी है, जो आपको अत्यन्त अमनोज्ञ प्रतीत हुआ था ।
राजा ने स्वयं प्रयोग करके देखा । सुबुद्धि का कथन सत्य सिद्ध हुआ। तब राजा ने सुबुद्धि से पूछासुबुद्धि ! तुम्हारी बात वास्तव में सत्य है पर यह तो बताओ कि यह सत्य, तथ्य, यथार्थ तत्त्व तुमने कैसे जाना ? तुम्हें किसने बतलाया ?
सुबुद्धि ने उत्तर दिया- स्वामिन्! इस सत्य का परिज्ञान मुझे जिन भगवान् के वचनों से हुआ है। वीतराग वाणी से ही मैं इस सत्य तत्त्व को उपलब्ध कर सका हूँ।
राजा जिनवाणी श्रवण करने की अभिलाषा प्रकट करता है, सुबुद्धि उसें चातुर्याम धर्म का स्वरूप समझाता है, राजा भी श्रमणोपासक बन जाता है।
एक बार स्थविर मुनियों का पुनः चम्पा में पदार्पण हुआ । धर्मोपदेश श्रवण कर सुबुद्धि अमात्य प्रव्रज्या ग्रहण करने की इच्छा से अनुमति माँगता है। राजा कुछ समय रुक जाने के लिए और फिर साथ ही दीक्षा अंगीकार करने के लिए कहता है। सुबुद्धि उसके कथन को मान लेता है। बारह वर्ष बाद दोनों संयम अंगीकार करके अन्त में जन्म-मरण की व्यथाओं से सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाते हैं।