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________________ बारहवाँ अध्ययन : उदकज्ञात सार : संक्षेप प्रस्तुत अध्ययन में प्ररूपित किया गया है कि सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष किसी भी वस्तु का केवल बाह्य दृष्टि से विचार नहीं करता, किन्तु आन्तरिक तात्त्विक दृष्टि से भी अवलोकन करता है। उसकी दृष्टि तत्त्वस्पर्शी होती है। तत्त्वस्पर्शी दृष्टि से वस्तु का निरीक्षण करने के कारण उसकी आत्मा में राग-द्वेष के आविर्भाव की संभावना प्रायः नहीं रहती। इससे विपरीत बहिरात्मा मिथ्या दृष्टिवस्तु के बाह्य रूप का ही विचार करता है। वह उसकी गहराई में नहीं उतरता, इस कारण पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट, मनोज्ञ-अमनोज्ञ आदि विकल्प करता है और अपने ही इन मानसिक विकल्पों द्वारा राग-द्वेष के वशीभूत होकर कर्मबन्ध का भागी होता है। इस आत्महितकारी उपदेश को यहाँ अत्यन्त सरल कथानक की शैली में प्रकट किया गया है। कथानक का संक्षिप्त सार इस प्रकार है चम्पा नगरी के राजा जितशत्रु का अमात्य सुबुद्धि था। राजा जितशत्रु जिनमत से अनभिज्ञ था, सुबुद्धि अमात्य जिनमत का ज्ञाता और श्रावक-श्रमणोपासक भी था। एक दिन का प्रसंग है। राजा अन्य अनेक प्रतिष्ठित जनों के साथ भोजन कर रहा था। संयोगवश उस दिन भोजन बहुत स्वादिष्ट बना। भोजन करने के पश्चात् जब जीमने वाले एक साथ बैठे तो भोजन की सुस्वादुता से विस्मित राजा ने भोजन की प्रशंसा के पुल बाँधने शुरू किए। अन्य लोगों ने राजा की हाँ में हाँ मिलाई-राजा के कथन का समर्थन किया। सुबुद्धि अमात्य भी जीमने वालों में था, किन्तु वह बोला नहींमौन धारण किये रहा। सुबुद्धि को मौन धारण किये देख राजा ने उसी को लक्ष्य करके जब बार-बार भोजन की प्रशंसा की तो उसे बोलना ही पड़ा। मगर वह सम्यग्दृष्टि, श्रावक था, अतएव उसकी विचारणा इतर जनों और राजा की विचारणा से भिन्न थी। वह वस्तु-स्वरूप की तह तक पहुँचता था। अतएव उसने राजा के कथन का अनुमोदन न करते हुए साहसपूर्वक सचाई प्रकट कर दी। कहा–'स्वामिन् ! इस स्वादिष्ट भोजन के विषय में मेरे मन में किंचित् भी विस्मय नहीं है। पुद्गलों के परिणमन अनेक प्रकार के होते रहते हैं। शुभ प्रतीत होने वाले पुद्गल निमित्त पाकर अशुभ प्रतीत होने लगते हैं और अशुभ पुद्गल शुभ रूप में परिणत हो जाते हैं। पुद्गल तो पुद्गल ही है, उसमें शुभत्व-अशुभत्व का आरोप हमारी राग-द्वेषमयी बुद्धि करती है। अतएव मुझे इस प्रकार के परिणमन आश्चर्यजनक नहीं प्रतीत होते।' सुबुद्धि के इस कथन का राजा ने आदर नहीं किया, मगर वह चुप रह गया। चम्पा नगरी के बाहर एक परिखा (खाई) थी। उसमें अत्यन्त अशुचि, दुर्गन्धयुक्त एवं सड़े-गले मृतक-कलेवरों से व्याप्त गंदा पानी भरा था। राजा जितशत्रु एक बार सुबुद्धि अमात्य आदि के साथ घुड़सवारी
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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