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________________ नवम अध्ययन : माकन्दी ] [ ३०३ समान लगा तो उसे तलवार की नोक पर झेल लिया। नील कमल, भैंस के सींग और अलसी के फूल के श्याम रंग की श्रेष्ठ तलवार से विलाप करते हुए उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। टुकड़े-टुकड़े करके अभिमान रस से वध किये हुए जिनरक्षित के रुधिर से व्याप्त अंगोपांगों को ग्रहण करके, दोनों हाथों की अंजलि करके, हर्षित होकर उसने उत्क्षिप्त - बलि अर्थात् देवता को उद्देश्य करके आकाश में फैंकी हुई बलि की तरह, चारों दिशाओं को बलिदान किया । ५९ – एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए पव्वइए समाणे पुणरवि माणुस्साए कामभोगे आसायइ, पत्थयइ, पीहेइ, अभिलसइ, से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं जाव' संसारं अणुपरियट्ठिस्सइ, जहा वा से जिणरक्खि । छलिओ अवयक्खंतो, निरावयक्खो गओ अविग्घेणं । तम्हा पवयणसारे, निरावयक्खेण भवियव्वं ॥ १ ॥ भोगे अवयक्खंता, पडंति संसार- सायरे घोरे । भोगेहिं निरवयक्खा, तरंति संसारकंतारं ॥ २॥ • इसी प्रकार हे आयुष्मन श्रमणो! जो हमारे निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य - उपाध्याय के समीप प्रव्रजित होकर, फिर से मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों का आश्रय लेता है, याचना करता है, स्पृहा करता है अर्थात् कोई बिना मांगे कामभोग के पदार्थ दे दे, ऐसी अभिलाषा करता है, या दृष्ट अथवा अदृष्ट शब्दादिक के भोग की इच्छा करता है, वह मनुष्य इसी भव में बहुत-से साधुओं, बहुत-सी साध्वियों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं द्वारा निन्दनीय होता है, यावत् अनन्त संसार में परिभ्रमण करता है। उसकी दशा जिनरक्षित जैसी होती है। पीछे देखने वाला जिनरक्षित छला गया और पीछे नहीं देखने वाला जिनपालित निर्विघ्न अपने स्थान पर पहुँच गया। अतएव प्रवचनसार ( चारित्र) में आसक्तिरहित होना चाहिए, अर्थात् चारित्रवान् को अनासक्त रह कर चारित्र का पालन करना चाहिए ॥ १॥ चारित्र ग्रहण करके भी जो भोगों की इच्छा करते हैं, वे घोर संसार-सागर में गिरते हैं और जो भोगों की इच्छा नहीं करते, वे संसार रूपी कान्तार को पार कर जाते हैं ॥ २ ॥ ६० - तए णं सा रयणद्दीवदेवया जेणेव जिणपालिए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता बहूहिं अणुलोमेहि य पडिलोमेहि य खर-महुर- सिंगारेहिं कलुणेहि य उवसग्गेहि य जाहे नो संचाएइ चालित्तए वा खोभित्तए वा विप्परिणामित्तए वा, ताहे संता तंता परितंता निव्वण्णा समाणा जामेव दिसिं पाउब्या तामेव दिसिं पडिगया। तत्पश्चात् वह रत्नद्वीप की देवी जिनपालित के पास आई । आकर बहुत-से अनुकूल, प्रतिकूल, कठोर, मधुर, श्रृंगार वाले और करुणाजनक उपसर्गों द्वारा जब उसे चलायमान करने, क्षुब्ध करने एवं मन को पलटने में असमर्थ रही, तब वह मन से थक गई, शरीर से थक गई, पूरी तरह ग्लानि को प्राप्त हुई और १. तृतीय अ. सूत्र १३
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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