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________________ २८४] [ज्ञाताधर्मकथा 'हम लोगों ने पोतवहन (जहाज) से लवणसमुद्र को ग्यारह बार अवगाहन किया है। सभी बार हम लोगों ने अर्थ (धन) की प्राप्ति की, करने योग्य कार्य सम्पन्न किये और फिर शीघ्र बिना विघ्न के अपने घर आ गये। तो हे देवानुप्रिय! बारहवीं बार भी पोतवहन से लवणसमुद्र में अवगाहन करना हमारे लिए अच्छा रहेगा।' इस प्रकार विचार करके उन्होंने परस्पर इस अर्थ (विचार) को स्वीकार किया। स्वीकार करके जहाँ मातापिता थे, वहां आये और आकर इस प्रकार बोले ५-एवं खलु अम्हे अम्मयाओ! एक्कारस वारा तं चेव जाव' निययं घरं हव्वमागया, तं इच्छामो णं अम्मयाओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणा दुवालसमं लवणसमुदं पोयवहणेणं ओगाहित्तए।' तए णं ते मागंदियदारए अम्मापियरो एवं वयासी-'इमे ते जाया! अजग [पज्जगपिउपज्जगागए सुबहु हिरण्णे य सुवण्णे य कंसे यमणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवाल-रत्त-रयणसंतसार-सावएजे य अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पगामं दाउं, पगामं भोत्तुं पगामं] परिभाएउं, तं अणुहोह ताव जाया! विउले माणुस्सए इड्डीसक्कारसमुदए। किं भे सपच्चवाएणं निरालंबणेणं लवणसमुद्दोत्तारेणं? एवं खलु पुत्ता! दुवालसमी जत्ता सोवसग्गा यावि भवइ। तं माणं तुब्भे दुवे पुत्ता दुवालसमं पिलवणसमुदं जाव (पोयवहणेणं)ओगाहेह, मा हुतुब्भं सरीरस्स वावत्ती भविस्सइ। 'हे माता-पिता! आपकी अनुमति प्राप्त करके हम बारहवीं बार लवणसमुद्र की यात्रा करना चाहते हैं। हम लोग ग्यारह बार पहले यात्रा कर चुके हैं और सकुशल सफलता प्राप्त करके लौटे हैं।' तब माता-पिता ने उन माकन्दीपुत्रों से इस प्रकार कहा-'हे पुत्रो! यह तुम्हारे बाप-दादा (पड़दादा से प्राप्त बहुत-सा हिरण्य, स्वर्ण, कांस्य, रूप्य, मणि, मुक्ता, शंख, शिला, मूंगा, लाल आदि उत्तम सम्पत्ति मौजूद है जो सात पीढ़ी तक खूब देने, भोगने एवं) बंटवारा करने के लिए पर्याप्त है। अतएव पुत्रो! मनुष्य संबन्धी विपुल ऋद्धि सत्कार के समुदाय वाले भोगों को भोगो। विघ्न-बाधाओं से युक्त और जिसमें कोई आलम्बन नहीं ऐसे लवण समुद्र में उतरने से क्या लाभ है? हे पुत्रो! बारहवीं (बार की) यात्रा सोपसर्ग (कष्टकारी) भी होती है। अतएव हे पुत्रो! तुम दोनों बारहवीं बार लवणसमुद्र में प्रवेश मत करो, जिससे तुम्हारे शरीर को व्यापत्ति (विनाश या पीड़ा) न हो।' । ६-तएणंमागंदियदारगाअम्मापियरो दोच्चं पितच्चं पिएवं वयासी-‘एवं खलु अम्हे अम्मयाओ! एक्कारस वारा लवणसमुदं ओगाढा।सव्वत्थ वियणं लद्धट्ठाकयकज्जा अणहसमग्गा पुणरवि नियघरं हव्वमागया। तं सेयं खलु अम्मयाओ! दुवालसंपि लवणसमुदं ओगाहित्तए।' तत्पश्चात् माकन्दीपुत्रों ने माता-पिता से दूसरी बार और तीसरी बार इस प्रकार कहा-'हे मातापिता! हमने ग्यारह बार लवणसमुद्र में प्रवेश किया है, प्रत्येक बार धन प्राप्त किया, कार्य सम्पन्न किया और निर्विघ्न घर लौटे। हे माता-पिता! अतः बारहवीं बार प्रवेश करने की हमारी इच्छा है।' ७-तए णं मागंदीदारए अम्मापियरो जाहे नो संचाएंति बहूहिं आघवणाहि य पन्नवणाहि १. देखिए चतुर्थ सूत्र
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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