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[ज्ञाताधर्मकथा में), पूर्वाह्न काल के समय में, निर्जल अष्टम भक्त तप करके, अश्विनी नक्षत्र के साथ चन्द्र का योग प्राप्त होने पर, तीन सौ आभ्यन्तर परिषद् की स्त्रियों के साथ और तीन सौ बाह्य परिषद् के पुरुषों के साथ मुण्डित होकर दीक्षा अंगीकार की। १८४-मल्लिं अरहं इमे अट्ठाणायकुमारा अणुपव्वइंसु, तं जहा
णंदे य णंदिमित्ते, सुमित्त बलमित्त भाणुमित्ते य।
अमरवइ अमरसेणे महसेणे चेव अट्ठमए॥ मल्ली अरहंत का अनुसरण करके इक्ष्वाकुवंश में जन्मे तथा राज्य भोगने योग्य हुए आठ ज्ञातकुमार दीक्षित हुए। उनके नाम इस प्रकार हैं
(१) नन्द (२) नन्दिमित्र (३) सुमित्र (४) बलमित्र (५) भानुमित्र (६) अमरपति (७) अमरसेन (८) आठवें महासेन। आठ ज्ञातकुमारों (इक्ष्वाकुवंशी राजकुमारों) ने दीक्षा अंगीकार की।
१८५-तए णं भवणवइ-वाणमन्तर-जोइसिय-वेमाणिया देवा मल्लिस्स अरहओ निक्खमणमहिमं करेंति, करित्ता जेणेव नंदीसरवरे दीवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अट्ठाहियं करेंति, करित्ता जाव पडिगया।
तत्पश्चात् भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक-इन चार निकाय के देवों ने मल्ली अरहन्त का दीक्षा-महोत्सव किया। महोत्सव करके जहाँ नन्दीश्वर द्वीप था, वहाँ गये। जाकर अष्टाह्निका महोत्सव किया। महोत्सव करके यावत् अपने-अपने स्थान पर लौट गये।
१८६-तए णं मल्ली अरहा जंचेव दिवसं पव्वइए तस्सेव दिवसस्स पच्चावरण्हकालसमयंसि असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयंसि सुहासणवरगयस्स सुहेणं परिणामेणं, पसत्थेहि अज्झवसाणेणं पसत्थाहिं लेसाहिं विसुज्झमाणीहि, तयावरणकम्मरयविकरणकर अपुव्वकरणं अणुपविट्ठस्स अणंते जाव (अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे ) केवलनाणदंसणे समुप्पन्ने।
___तत्पश्चात् मल्ली अरहन्त ने, जिस दिन दीक्षा अंगीकार की, उसी दिन के प्रत्यपराह्नकाल के समय अर्थात् दिन के अन्तिम भाग में, श्रेष्ठ अशोकवृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्टक के ऊपर विराजमान थे, उस समय शभ परिणामों के कारण, प्रशस्त अध्यवसाय के कारण तथा विशद्ध एवं प्रशस्त लेश्याओं के कारण, तदावरण (ज्ञानावरण और दर्शनावरण) कर्म की रज को दूर करने वाले अपूर्वकरण (आठवें गुणस्थान) को प्राप्त हुए। तत्पश्चात् अरहन्त मल्ली को अनन्त अर्थात् अनन्त पदार्थों को जानने वाला और सदाकाल स्थायी, अनुत्तरसर्वोत्कृष्ट, निर्व्याघात-सब प्रकार के व्याघातों से रहित-जिसमें देश या काल सम्बन्धी दूरी आदि कोई बाधा उपस्थित नहीं हो सकती, निरावरण-सब आवरणों से रहित, सम्पूर्ण और प्रतिपूर्ण केवल-ज्ञान और केवलदर्शन की उत्पत्ति हुई।
१८७–तेणं कालेणं तेणं समएणं सव्वदेवाणं आसणाइंचलंति।समोसढा, धम्मं सुणेति, अट्ठाहियमहिमा नंदीसरे, जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया। कुम्भए वि निग्गच्छइ।
उस काल और उस समय में सब देवों के आसन चलायमान हुए। तब वे सब देव वहाँ आये,