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________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली] [२६३ हूँ।' ऐसा कहकर सन्ध्याकाल के अवसर पर जब बिरले मनुष्य गमनागमन करते हों और विश्राम के लिए अपने-अपने घरों में मनुष्य बैठे हों; उस समय अलग-अलग राजा का मिथिला राजधानी के भीतर प्रवेश कराइए। प्रवेश कराकर उन्हें गर्भगृह के अन्दर ले जाइए। फिर मिथिला राजधानी के द्वार बन्द करा दीजिए और नगरों के रोध में सज्ज होकर ठहरिए-नगररक्षा के लिए तैयार रहिए। १३७–तए णं कुंभए राया एवं तं चेव जाव पवेसेइ, रोहसजे चिट्ठइ। तत्पश्चात् राजा कुम्भ ने इसी प्रकार किया। यावत् छहों राजाओं को मिथिला के भीतर प्रवेश कराया। वह नगरी के रोध में सज्ज होकर ठहरा। राजाओं को सम्बोधन १३८-तए णं जियसत्तुपामोक्खा छप्पि य रायाणो कल्लं पाउप्पभायाए जाव' जालंतरेहिं कणगमयं मत्थयछिड्डे पउमुप्पलपिहाणं पडिमं पासंति। एसणं मल्ली विदेहरायवरकन्न' त्ति कटु मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए रूवे य जोव्वणे य लावण्णे य मुच्छिया गिद्धा जाव अज्झोववन्ना अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणा चिटुंति। ' तत्पश्चात् जितशत्रु आदि छहों राजा कल अर्थात् दूसरे दिन प्रातःकाल (उन्हें जिस मकान में ठहराया था उसकी) जालियों में से स्वर्णमयी, मस्तक पर छिद्र वाली और कमल के ढक्कन वाली मल्ली की प्रतिमा को देखने लगे। 'यही विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या मल्ली है' ऐसा जानकर विदेहराजवरकन्या मल्ली के रूप यौवन और लावण्य में मूर्च्छित, गृह यावत् अत्यन्त लालायित होकर अनिमेष दृष्टि से बार-बार उसे देखने लगे। १३९-तए णं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना बहाया जाव पायच्छित्ता सव्वालंकारविभूसिया बहूहिं खुजाहिं जाव परिक्खित्ता जेणेव जालघरए, जेणेव कणगपडिमा तेणेव उवागच्छइ।उवागच्छित्ता तीसे कणगपडिमाए मत्थयाओ तं पउमं अवणेइ।तए णं गंधे णिद्धावइ से जहानामए अहिमडे इ वा जाव' असुभतराए चेव। तत्पश्चात् विदेहराजवरकन्या मल्ली ने स्नान किया, यावत् कौतुक, मंगल, प्रायश्चित किया। वह समस्त अलंकारों से विभूषित होकर बहुत-सी कुब्जा आदि दासियों से यावत् परिवृत होकर जहाँ जालगृह था और जहाँ स्वर्ण की वह प्रतिमा थी, वहाँ आई। आकर उस स्वर्णप्रतिमा के मस्तक से वह कमल का ढक्कन हटा दिया। ढक्कन हटाते ही उसमें से ऐसी दुर्गन्ध छूटी कि जैसे मरे साँप की दुर्गन्ध हो, यावत् [मृतक गाय, कुत्ता आदि की दुर्गन्ध हो] उससे भी अधिक अशुभ। १४०–तएणं जियसत्तुपामोक्खा तेणं असुभेणं गंधेणं अभिभूया समाणा सएहिं सएहिं उत्तरिजेहिं आसाइं पिहेंति, पिहित्ता परम्मुहा चिटुंति। तए णं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना ते जियसत्तुपामोक्खे एवं वयासी-'किं णं तुब्भं देवाणुप्पिया! सएहिं सएहिं उत्तरिजेहिं जाव परम्मुहा चिट्ठह ?' तएणं ते जियसत्तुपामोक्खा मल्लि विदेहरायवरकन्नं एवं वयंति-'एवं खलु देवाणुप्पिए! १. प्र. अ. २८ २. अष्टम अ. ३६ .
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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