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आठवाँ अध्ययन : मल्ली] उद्वेगरहित होकर सुख-शान्तिपूर्वक निवास करना चाहते हैं।'
तब काशीराज शंख ने उन सुवर्णकारों से कहा-'देवानुप्रियो ! कुम्भ राजा ने तुम्हें देशनिकाले की आज्ञा क्यों दी?'
तब सुवर्णकारों ने शंख राजा से इस प्रकार कहा–'स्वामिन् ! कुम्भ राजा की पुत्री और प्रभावती देवी की आत्मजा मल्ली कुमारी के कुण्डलयुगल का जोड़ खुल गया था। तब कुम्भ राजा ने सुवर्णकारों की श्रेणी को बुलाया। बुलाकर यावत् (उसे सांधने के लिए कहा। हम उसे अनेक उपाय करके भी सांध नहीं सके, अतः) देशनिर्वासन की आज्ञा दे दी।'
९३-तए णं से संखे सुवन्नगारे एवं वयासी-'केरिसिया णं देवाणुप्पिया! कुंभगस्स धूया पभावईए देवीए अत्तया मल्ली विदेहरायवरकन्ना?'
तए णं ते सुवण्णगारा संखरायं एवं वयासी-'णो खलु सामी! अन्ना काई तारिसिया देवकन्ना वा जाव [ असुरकन्ना वा नागकन्ना वा जक्खकन्ना वा गंधव्वकन्ना वा रायकन्ना वा] जारिसिया णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना।'
तए णं कुंडलजुलजणियहासे दूतं सद्दावेइ, जाव तहेव पहारेत्थ गमणाए। • तत्पश्चात् शंख राजा ने सुवर्णकारों से कहा-'देवानुप्रियो ! कुम्भ राजा की पुत्री और प्रभावती की आत्मजा विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या मल्ली कैसी है?'
तब सुवर्णकारों ने शंखराजा से कहा-'स्वामिन् ! जैसी विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या मल्ली है, वैसी कोई देवकन्या अथवा असुरकन्या, नागकन्या, यक्षकन्या, गन्धर्वकन्या भी नहीं है, कोई राजकुमारी भी नहीं है।'
तत्पश्चात् कुण्डल की जोड़ी से जनित हर्ष वाले शंख राजा ने दूत को बुलाया, इत्यादि सब वृत्तान्त पूर्ववत् जानना अर्थात् शंख राजा ने भी मल्ली कुमारी की मँगनी के लिए दूत भेज दिया और उससे कह दिया कि मल्ली कुमारी के शुल्क रूप में सारा राज्य देना पड़े तो दे देना। दूत मिथिला जाने को रवाना हो गया। राजा अदीनशत्रु
९४–तेणं कालेणं तेणं समएणं कुरुजणवए होत्था, हत्थिणाउरे नयरे, अदीणसत्तू नामं राया होत्था, जाव [ रजं पसासमाणे] विहरइ।
उस काल और उस समय में कुरु नामक जनपद था। उसमें हस्तिनापुर नगर था। अदीनशत्रु नामक वहाँ राजा था। यावत् वह (राज्यशासन करता सुखपूर्वक) विचरता था।
___ ९५-तत्थं णं मिहिलाए कुंभगस्स पुत्ते पभावईए अत्तए मल्लीए आणुजायए मल्लदिन्नए नाम कुमारे जाव' जुवराया यावि होत्था।
तएणं मल्लदिन्ने कुमारे अन्नया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'गच्छह णंतुब्भेमम पमदवणंसि एगंमहं चित्तसभं करेह अणेगखंभसयण्णिविट्ठ एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह ते वि तहेव पच्चप्पिणंति।। १. औ. सूत्र १४३