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________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली] [२३१ राजा चन्द्रच्छाय ५२-तेणं कालेणं तेणं समएणं अंगे नाम जणवए होत्था। तत्थं णं चंपानाम णयरी होत्था। तत्थ णं चंपाए नयरीए चंदच्छाए अंगराया होत्था। उस काल और उस समय में अंग नामक जनपद था। उसमें चम्पा नामक नगरी थी। उस चम्पा नगरी में चन्द्रच्छाय नामक अंगराज-अंग देश का राजा था। __५३-तत्थ णंचंपाए नयरीए अरहन्नकपामोक्खा बहवे संजत्ता णवावाणियगा परिवसंति, अड्डा जाव' अपरिभूया।तएणं से अरहन्नगेसमणोवासए याविहोत्था, अहिगयजीवाजीवे, वन्नओ। उस चम्पानगरी में अर्हन्त्रक प्रभृति बहुत-से सांयात्रिक (परदेश जाकर व्यापार करने वाले) नौवणिक् (नौकाओं से व्यापार करने वाले) रहते थे। वे ऋद्धिसम्पन्न थे और किसी से पराभूत होने वाले नहीं थे । उनमें अर्हन्नक श्रमणोपासक (श्रावक) भी था, वह जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता था। यहाँ श्रावक का वर्णन जान लेना चाहिए। ५४-तए णं तेसिं अरहन्नगपामोक्खाणं संजत्ताणावावाणियगाणं अन्नयाकयाइएगयओं सहियाणं इमे एयारूवे मिहो कहासंलावे समुप्पज्जित्था ' 'सेयं खलु अम्हं गणिमं च धरिमं च मेजं च परिच्छेज्जं च भंडगं गहाय लवणसमुदं पोयवहणेण ओगाहित्तए त्ति कटु अन्नमन्नं एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणित्ता गणिमं च धरिमंच मेजं च पारिच्छेज्जं च भंडगं गेण्हइ, गेण्हित्ता सगडिसागडियं च सज्जेंति, सजित्ता गणिमस्स च धरिमस्स च मेजस्स च पारिच्छेजस्स च भंडगस्स सगडसागडियं भरेंति, भरित्ता सोहणंसि तिहिकरण-नक्खत्त-मुहत्तंसि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेंति, मित्त-णाइ-नियगसयण-सम्बन्धि-परियणं भोयणवेलाए भुंजावेंति जाव [भुंजावेत्ता] आपुच्छंति, आपुच्छित्ता सगडिसागडियं जोयंति, चंपाए नयरीए मझमझेणं णिग्गच्छंति, णिगच्छित्ता जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छंति। तत्पश्चात् वे अर्हन्नक आदि सांयात्रिक नौवणिक् किसी समय एक बार एक जगह इकट्ठे हुए, तब उनमें आपस में इस प्रकार कथासंलाप (वार्तालाप) हुआ 'हमें गणिम (गिन-गिन कर बेचने योग्य नारियल आदि), धरिम (तोल कर बेचने योग्य घृत आदि), मेय (पायली आदि में माप कर-भर कर बेचने योग्य अनाज आदि) और परिच्छेद्य (काट कर बेचने योग्य वस्त्र आदि), यह चार प्रकार का भांड (सौदा) लेकर, जहाज द्वारा लवणसमुद्र में प्रवेश करना चाहिये।' इस प्रकार विचार करके उन्होंने परस्पर में यह बात अंगीकार की। अंगीकार करके गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य भांड को ग्रहण किया। ग्रहण करके छकड़ा-छकड़ी तैयार किए। तैयार करके गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य भांड से छकड़ी-छकड़े भरे। भर कर शुभ तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार बनवाया। बनवाकर भोजन की वेला में मित्रों, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों सम्बन्धीजनों १. द्वि. अ.६
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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