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आठवाँ अध्ययन : मल्ली]
[२१९ तत्पश्चात् महाबल आदि सातों अनगार क्षुल्लक (लघु) सिंहनिष्क्रीडित तप को (चारों परिपाटी सहित) दो वर्ष और अट्ठाईस अहोरात्र में, सूत्र के कथनानुसार यावत् तीर्थंकर की आज्ञा से आराधन करके, जहाँ स्थविर भगवान् थे, वहाँ आये। आकर उन्होंने वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार बोले
२०–इच्छामो णं भंते ! महालयं सीहनिक्कीलियं तवोकम्मं तहेव जहा खुड्डागं नवरं चोत्तीसइमाओ नियत्तए, एगाए चेव परिवाडीए कालो एगेणं संवच्छरेणं छहिं मासेहिं अट्ठारसेहि यअहोरत्तेहिं समप्पेइ।सव्वं पिसीहनिक्कीलियं छहिं वासेहिं, दोही यमासेहिं, बारसेहि य अहोरत्तेहिं समप्पेइ।
'भगवान ! हम महत् (बड़ा) सिंहनिष्क्रीडित नामक तपःकर्म करना चाहते हैं आदि'। यह तप क्षुल्लक सिंहनिष्क्रीड़ित तप के समान ही जानना चाहिए। विशेषता यह है कि इसमें चौतीस भक्त अर्थात् सोलह उपवास तक पहुँचकर वापिस लौटा जाता है। एक परिपाटी एक वर्ष, छह मास और अठारह अहोरात्र में समाप्त होती है। सम्पूर्ण महासिंहनिष्क्रीडित तप छह वर्ष, दो मास और बारह अहोरात्र में पूर्ण होता है। (प्रत्येक परिपाटी में ५५८ दिन लगते हैं, ४९७ उपवास और ६१ पारणा होती हैं।)
. २१-तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा महालयं सीहनिक्कीलियं अहासुत्तं जाव' आराहेत्ता जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदन्ति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता बहूणि चउत्थ जाव विहरंति।
तत्पश्चात् वे महाबल प्रभृति सातों मुनि महासिंहनिष्क्रीडित तपःकर्म का सूत्र के अनुसार यावत् आराधन करके जहाँ स्थविर भगवान् थे वहाँ आते हैं। आकर स्थविर भगवान् को वन्दना करते हैं नमस्कार करते हैं। वन्दना और नमस्कार करके बहुत से उपवास, तेला आदि करते हुए विचरते हैं। समाधिमरण
२२-तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा तेणं उरालेणं तवोकम्मेणं सुक्का भुक्खा जहा खंदओ, नवरं थेरे आपुच्छित्ता चारुपव्वयं (वक्खारपव्वयं) दुरूहति। दुरूहित्ता जावदोमासियाए संलेहणाए सवीसं भत्तसयं अणसणं, चउरासीइं वाससयसहस्साइंसामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता चुलसीइं पुव्वसयसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता जयंते विमाणे देवत्ताए उववन्ना।
तत्पश्चात् वे महाबल प्रभृति अनगार उस प्रधान तप के कारण शुष्क अर्थात् मांस-रक्त से हीन तथा रूक्ष अर्थात् निस्तेज हो गये, भगवतीसूत्र में कथित स्कंदक मुनि (या इसी अंग में वर्णित मेघ मुनि के सदृश उनका वर्णन समझ लेना चाहिए।) विशेषता यह है कि स्कंदक मुनि ने भगवान् महावीर से आज्ञा प्राप्त की थी, पर इन सात मुनियों ने स्थविर भगवान् से आज्ञा ली। आज्ञा लेकर चारु पर्वत (चारु नामक वृक्षस्कार पर्वत) पर आरूढ़ हुए। आरूढ़ होकर यावत् दो मास की संलेखना करके-एक सौ बीस भक्त का अनशन करके, चौरासी लाख वर्षों तक संयम का पालन करके, चौरासी लाख पूर्व का कुल आयुष्य भोगकर जयंत नामक तीसरे अनुत्तर १. प्र. अ. १९६ २. प्र. अ. २०१ ३. भगवती श. २ ४. प्र. अ. २०६