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[ज्ञाताधर्मकथा तए णं रायगिहे नयरे सिंघाडग जाव (तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु) बहुजणो अन्नमन्नं एवमाइक्खइ–'धन्ने णं देवाणुप्पिया! धण्णे सत्थवाहे, जस्स णं रोहिणिया सुण्हा, जीए णं पंच सालिअक्खए सगडसागडिएणं निज्जाइए।
___ तत्पश्चात् धन्य-सार्थवाह ने रोहिणी को बहुत-से छकड़ा-छकड़ी दिये। रोहिणी उन छकड़ाछकड़ियों को लेकर जहाँ अपना कुलगृह (मैका) था, वहाँ आई। आकर कोठार खोला। कोठार खेल कर पल्य उघाड़े, उघाड़ कर छकड़ा-छकड़ी भरे। भरकर राजगृह नगर के मध्य भाग में होकर जहाँ अपना घर (ससुराल) था और जहाँ धन्य-सार्थवाह था, वहाँ आ पहुंची।
तब राजगृह नगर में शृंगाटक (चौक, चत्वर, चतुर्मुख, महापथ) आदि मार्गों में बहुत से लोग आपस में इस प्रकार कह कर प्रशंसा करने लगे-'देवानुप्रियो! धन्य-सार्थवाह धन्य है, जिसकी पुत्रवधू गोहिणी है, जिसने पांच शालि के दाने छकड़ा-छकड़ियों में भर कर लौटाये।'
३०-तए णं से धण्णे सत्थवाहे ते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निजाइए पासइ, पासित्ता हट्ठतुढे पडिच्छइ। पडिच्छित्ता तस्सेव मित्त-नाइ-नियग संबन्धी-परियणस्स चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ रोहिणीयं सुण्हं तस्स कुलघरवग्गस्स बहुसुकज्जेसुयजाव[कारणेसु य कुडुंबेसु य मंतेसु य गुज्झेसु य] रहस्सेसु य आपुच्छणिज्जं जाव' वड्डावियं पमाणभूयं ठावेइ।
तत्पश्चात् धन्य-सार्थवाह उन पांच शालि के दानों को छकड़ा-छकड़ियों द्वारा लौटाये देखता है। देखकर हृष्ट और तुष्ट होकर उन्हें स्वीकार करता है। स्वीकार करके उसने उन्हीं मित्रों एवं ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, संबन्धीजनों तथा परिजनों के सामने तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृहवर्ग के समक्ष रोहिणी पुत्रवधू को उस कुलगृहवर्ग (परिवार) के अनेक कार्यों में यावत् रहस्यों में पूछने योग्य यावत् गृह का कार्य चलाने वाली और प्रमाणभूत (सर्वेसर्वा) नियुक्त किया।
३१-एवामेव समणाउसो! जाव पंच महव्वया संवड्डिया भवंति, से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं जाव वीईवइस्सइ जहा व सा रोहिणीया।
इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो! जो साधु-साध्वी आचार्य या उपाध्याय के निकट दीक्षित होकर, अनगार बन कर अपने पांच महाव्रतों में वृद्धि करते हैं-उन्हें उत्तरोत्तर अधिक निर्मल बनाते हैं, वे इसी भव में बहुत से श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों और श्राविकाओं के पूज्य होकर यावत् संसार से मुक्त हो जाते हैं जैसे वह रोहिणी बहुजनों की प्रशंसापात्र बनी। उपसंहार
३२-एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं सत्तमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नते त्ति बेमि।
हे जम्बू! श्रमण भगवान् महावीर ने सातवें ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ कहा है। वही मैंने तुमसे कहा है।
॥सप्तम अध्ययन समाप्त।
१. सप्तम अ. सूत्र ४