________________
षष्ठ अध्ययन : तुम्बक
सार : संक्षेप
छठा अध्ययन स्वतः सार-संक्षेपमय है। उसका सार अथवा संक्षिप्त रूप अलग से लिखने की आवश्यकता नहीं है। तथापि जो शैली अपनाई गई है, उसे अक्षुण्ण रखने के लिए किंचित् लिखना आवश्यक
प्रस्तुत अध्ययन में जो प्रश्नोत्तर हैं, वे राजगृह नगर में सम्पन्न हुए। राजगृह नगर भगवान् महावीर के विहार का मुख्य स्थल रहा है।
गौतम स्वामी ने जीवों की गुरुता और लघुता के विषय में प्रश्न किया है। व्यवहारनय की दृष्टि से गुरुता अध:पतन का कारण है और लघुता ऊर्ध्वगति का कारण है। किन्तु यहाँ जीव की गुरुता-लघुता का ही विचार किया गया है। भगवान् का उत्तर सोदाहरण है। तुम्बे का उदाहरण देकर समझाया गया है। जीव तुम्बे के समान है। अष्ट कर्मप्रकृतियाँ मिट्टी के आठ लेपों के समान हैं। संसार जलाशय के समान है। जैसे मिट्टी के आठ लेपों के कारण भारी हो जाने से तुम्बा जलाशय के अधः-तलभाग में चला जाता है और लेप-रहित होकर ऊर्ध्वगति करता है-ऊपर आ जाता है। इसी प्रकार संसारी जीव आठ कर्म-प्रकृतियों से भारी होकर नरक जैसी अधोगति का अतिथि बनता है और जब संवर एवं निर्जरा की उत्कृष्ट साधना करके इन कर्मप्रकृतियों से मुक्त हो जाता है, तब अपने स्वयंसिद्ध ऊर्ध्वगमन स्वभाव से लोक के अग्रभाग पर जाकर प्रतिष्ठित हो जाता है।
___ 'लोयग्गपइट्ठाणा भवंति' इस वाक्यांश द्वारा जैन परम्परा की मान्यता को द्योतित किया गया है। मोक्ष के विषय में एक मान्यता ऐसी है कि मुक्त जीव अनन्त काल तक, निरन्तर ऊर्ध्वगमन करता ही रहता है, कभी कहीं रुकता नहीं। इस मान्यता का इस वाक्यांश के द्वारा निषेध किया गया है।
एक मान्यता यह भी है कि मुक्त जीव की स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती, एक विराट् सत्ता में उसका विलीनीकरण हो जाता है। मुक्त जीव अपनी पृथक् सत्ता गंवा देता है। इस मान्यता का भी विरोध हो जाता है। मुक्त जीव लोकाग्र पर प्रतिष्ठित रहते हैं, उन की पृथक् सत्ता रहती है, यही मान्यता समीचीन है।