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पञ्चम अध्ययन : शैलक ]
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मैथुन से विरमण और समस्त परिग्रह से विरमण । इसके अतिरिक्त समस्त रात्रि - भोजन से विरमण, यावत् समस्त मिथ्यादर्शन शल्य से विरमण, दस प्रकार का प्रत्याख्यान और बारह भिक्षुप्रतिमाएँ। इस प्रकार दो तरह नियमूलक धर्म से क्रमशः आठ कर्मप्रकृतियों को क्षय करके जीवन लोक के अग्रभाग में- मोक्ष में प्रतिष्ठित होते हैं ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में व्रतों का जो उल्लेख किया गया है, वह भी महावीर - शासन की अपेक्षा से ही समझना चाहिये जैसा कि पहले कहा जा चुका है। 'अंगसुत्ताणि' में मुनिश्री नथमलजी ने उल्लिखित पाठ के स्थान पर निम्नलिखित पाठ दिया और परम्परागत उल्लिखित सूत्रपाठ का टिप्पणी में उल्लेख किया है— 'तत्थ णं जे से अगारविणए से णं चाउज्जामिए गिहिधम्मे, तत्थ णं जे से अणगारविणए से गं चाउज्जामा, तं जहा – सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सव्वाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं, सव्वाओ बहिद्धादाणाओ वेरमणं ।' अरिष्टनेमि के शासन की दृष्टि से यह पाठ अधिक संगत है। प्रस्तुत कथानक का सम्बन्ध भ. अरिष्टनेमि के काल के साथ ही है ।
सुदर्शन का प्रतिबोध
३६–तए णं थावच्चापुत्ते सुदंसणं एवं वयासी - 'तुब्भे णं सुदंसणा ! किंमूलए धम्मे पण्णत्ते ?'
'अम्हाणं देवाणुप्पिया! सोयमूले धम्मे पण्णत्ते, जाव' सग्गं गच्छंति ।'
तत्पश्चात् थावच्चापुत्र ने सुदर्शन से कहा - सुदर्शन ! तुम्हारे धर्म का मूल क्या कहा गया है ?
सुदर्शन ने उत्तर दिया- देवानुप्रिय ! हमारा धर्म शौचमूलक कहा गया है। [ वह शौच दो प्रकार का है - द्रव्यशौच और भावशौच । द्रव्यशौच जल और मिट्टी से तथा भाव - शौच दर्भ और मंत्र से होता है। अशुचि वस्तु मिट्टी से माँजने से शुचि हो जाती है और जल से धो ली जाती है। तब अशुचि शुचि हो जाती है ।] इस धर्म से जीव स्वर्ग में जाते हैं । (शुक्र का पूर्ववर्णित उपदेश यहाँ पूरा दोहरा लेना चाहिये ।)
३७ - तए णं थावच्चापुत्ते सुदंसणं एवं वयासी - सुदंसणा ! जहानामए केई पुरिसे एगं महं रुहिरकयं वत्थं रुहिरेण चेव धोवेज्जा, तए णं सुदंसणा ! तस्स रुहिरकयस्स रुहिरेण चेव पक्खालिज्जमाणस्स अस्थि कोइ सोही ?
'णो तिणट्ठे समट्ठे ।'
तब थावच्चापुत्र अनगार ने सुदर्शन से इस प्रकार कहा- हे सुदर्शन ! जैसे कुछ भी नाम वाला कोई पुरुष एक बड़े रुधिर से लिप्त वस्त्र को रुधिर से ही धोए, तो हे सुदर्शन ! उस रुधिर से ही धोये जाने वाले वस्त्र की कोई शुद्धि होगी ?
सुदर्शन ने कहा- यह अर्थ समर्थ नहीं, अर्थात् ऐसा नहीं हो सकता - रुधिर से लिप्त वस्त्र रुधिर से शुद्ध नहीं हो सकता।
३८ – एवामेव सुदंसणा ! तुब्धं पि पाणाइवाएण जाव' मिच्छादंसणसल्लेणं नत्थि सोही, जहा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चैव पक्खालिज्जमाणस्स नत्थि सोही ।
१. पंचम अ. सूत्र ३१. २. पंचम अ. सूत्र ३५