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[ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् सुदर्शन, शुक परिव्राजक से धर्म को श्रवण करके हर्षित हुआ।उसने शुक से शौचमूलक धर्म को स्वीकार किया। स्वीकार करके परिव्राजकों को विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम और वस्त्र से प्रतिलाभित करता हुआ अर्थात् अशन आदि दान करता हुआ रहने लगा। तत्पश्चात् वह शुक परिव्राजक सौगंधिका नगरी से बाहर निकला।निकल कर जनपद-विहार से विचरने लगा-देश-देशान्तर में भ्रमण करने लगा। थावच्चापुत्र का आगमन
___३४-तेणं कालेणं तेणं समएणं थावच्चापुत्ते णामं अणगारे सहस्सेणं अणगारेणं सद्धिं पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे, गामाणुगामंदूइज्जमाणे, सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव सोगंधिया नयरी, जेणेव नीलासोए उजाणे तेणेव समोसढे।
उस काल और उस समय में थावच्चापुत्र नामक अनगार एक हजार साधुओं के साथ अनुक्रमण से विहार करते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाते हुए और सुखे-सुखे विचरते हुए जहाँ सौगंधिका नामक नगरी थी और जहाँ नीलाशोक नामक उद्यान था, वहाँ पधारे। थावच्चापुत्र-सुदर्शनसंवाद
३५–परिसा निग्गया। सुदंसणो वि णिग्गए। थावच्चापुत्तं नामं अणगारं आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ, नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-'तुम्हाणं किंमूलए धम्मे पन्नते?'
तए णं थावच्चापुत्ते सुदंसणेणं एवं वुत्ते समाणे सुदंसणं एवं वयासी-'सुदंसणा! विणयमूले धम्मे पण्णत्ते।से विय विणए दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-अगारविणए य अणगारविणए य।तत्थ णं जे से अगारविणए से णं पंच अणुव्वयाई, सत्तसिक्खावयाई, एक्कारस उवासगपडिमाओ।तत्थ णंजे से अणगारविणए से णं पंच महव्वयाइं पन्नत्ताई, तंजहा-सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसायायाओ वेरमणं, सव्वाओ अदिनादाणाओ वेरमणं, सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं, सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं, सव्वाओ राइभोयणाओ वेरमणं, जाव मिच्छादंसल्लाओ वेरमणं, दसविहे पच्चक्खाणे, बारस भिक्खुपडिमाओ, इच्चेएणं दुविहेणं विणयमूलएणं धम्मेणं अणुपुव्वेणं अट्ठकम्म-पगडीओ खवेत्ता लोयग्गपइट्ठाणे भवंति।"
थावच्चापुत्र अनगार का आगमन जानकर परिषद् निकली। सुदर्शन भी निकला। उसने थावच्चापुत्र अनगार को दक्षिण तरफ से आरंभ करके प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दनानमस्कार करके वह इस प्रकार बोला-'आपके धर्म का मूल क्या है?'
तब सुदर्शन के इस प्रकार कहने पर थावच्चापुत्र अनगार ने सुदर्शन से इस प्रकार कहा-हे सुदर्शन! (हमारे मत में) धर्म विनयमूलक कहा गया है। यह विनय (चारित्र) भी दो प्रकार का कहा है-अगार-विनय अर्थात् गृहस्थ का चारित्र और अनगारविनय अर्थात् मुनि का चारित्र। इनमें जो अगारविनय है, वह पाँच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत और ग्यारह उपासक-प्रतिमा रूप है। अनगार-विनय पाँच महाव्रत रूप है, यथासमस्त प्राणातिपात (हिंसा) से विरमण, समस्त मृषावाद से विरमण, समस्त अदत्तादान से विरमण, समस्त
१. यह विनयवर्णन भ. महावीर के काल की अपेक्षा से है।