SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६८] [ज्ञाताधर्मकथा व्वइय' जाव समणोवासए, जाव अहिगयजीवाजीवे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। पंथगपामोक्खा पंच मंतिसया समणोवासया जाया। थावच्चापुत्ते वहिया जणवयविहारं विहरइ। धर्म सुनकर शैलक राजा ने कहा-जैसे देवानुप्रिय (आप) के समीप बहुत-से उग्रकुल के, भोजकुल के तथा अन्य कुलों के पुरुषों ने हिरण्य सुवर्ण आदि का त्याग करके दीक्षा अंगीकार की है, उस प्रकार मैं दीक्षित होने में समर्थ नहीं हूँ। अतएव मैं देवानुप्रिय से पाँच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों को धारण करके श्रावक बनना चाहता हूँ।' इस प्रकार राजा श्रमणोपासक यावत् जीव-अजीव आदि तत्वों का ज्ञाता हो गया यावत् तप तथा संयम से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरने लगा। इसी प्रकार पंथक आदि पाँच सौ मंत्री भी श्रमणोपासक हो गये। तत्पश्चात् थावच्चापुत्र अनगार वहाँ से विहार करके जनपदों में विचरण करने लगे। विवेचन-मध्य के बाईस तीर्थंकरों के शासन में चातुर्याम धर्म प्रचलित था, यह प्रसिद्ध हैआगमसिद्ध है। किन्तु यहाँ भगवान् अरिष्टनेमि के शासन में पंचाणुव्वइयं' पाठ आया है, जो ओघ पाठ प्रतीत होता है। वास्तव में 'चाउज्जामियं गिहिधम्म' ऐसा पाठ होना चाहिए। ऐसा होने पर ही अन्य आगमों के साथ इस पाठ का संवाद हो सकता है। आगमों में यत्र-तत्र ओघ पाठ पाये जाते हैं। एक प्रसंग में आया पाठ उसी प्रकार के दूसरे प्रसंग में भी आयोजित कर दिया जाता है। इस शैली के कारण कहीं-कहीं ऐसी असंगति हो जाती है। सुदर्शन श्रेष्ठी ३०-तेणं कालेणं तेणं समएणं सोगंधिया नामं नयरी होत्था, वण्णओ।नीलासोए उज्जाणे, वण्णओ । तत्थ णं सोगंधियाए नयरीए सुदंसणे नामं नगरसेट्ठी परिवसइ, अड्ढे जाव' अपरिभूए। ___उस काल और उस समय में सौगंधिका नामक नगरी थी। उसका वर्णन औपपातिक सूत्र के नगरीवर्णन के अनुसार समझ लेना चाहिये। उस नगरी के बाहर नीलाशोक नामक उद्यान था। उसका भी वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार कह लेना चाहिये। उस सौगंधिका नगरी में सुदर्शन नामक नगर श्रेष्ठी निवास करता था। वह समृद्धिशाली था, यावत् वह किसी से पराभूत नहीं हो सकता था। शुक परिव्राजक तेणं कालेणं तेणं समएणं सुए नामं परिव्वायए होत्था-रिउव्वेय-जजुव्वेय-सामवेयअथव्वणवेय-सट्ठितंतकुसले, संखसमए लद्धढे, पंचजम-पंचनियमजुत्तं सोयमूलयं दसप्पयारं परिव्वायगधम्मं दाणधम्मं च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च आघवेमाणे पण्णवेमाणे धाउरत्तवत्थपवरपरिहिए तिदंड-कुंडिय-छत्त-छन्नालियंकुस-पवित्तय-केसरीहत्थगए परिव्वायगसहस्सेणं सद्धिं संपरिवुडे जेणेव सोगंधिया नयरी जेणेव परिव्वायगावसहे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता परिव्वायगावसहंसि भंडगनिक्खेवं करेइ, करित्ता संखसमएणं अप्पाणं विहरइ। उस काल और उस समय में शुक नामक एक परिव्राजक था। वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद तथा षष्टितन्त्र (सांख्यशास्त्र) में कुशल था। सांख्यमत के शास्त्रों के अर्थ में कुशल था। पाँच यमों १-२-३. औपपातिक, पंचम अ. सूत्र ६
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy