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चतुर्थ अध्ययन : कूर्म]
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अपनी ग्रीवा बाहर निकाली। ग्रीवा निकालकर सब दिशाओं में अवलोकन किया। अवलोकन करके एक साथ चारों पैर बाहर निकाले और उत्कृष्ट कूर्मगति से अर्थात् कछुए के योग्य अधिक से अधिक तेज चाल से दौड़तादौड़ता जहां मृतगंगातीर नामक हृद था, वहाँ जा पहुँचा। वहाँ आकर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबंधी और परिजनों से मिल गया। सारांश
१३-एवामेवसमणाउसो! जो अम्हं समणो वासमणी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे पंच से इंदियाइं गुत्ताइं भवंति, जाव[से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं साविगाण य अच्चणिजे वंदणिजे नमंसणिज्जे पूयणिजे सक्कारणिजे सम्माणणिजे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएण पज्जुवासणिजे भवइ।
परलोए वि यणं नो बहूणि छत्थछेयणाणि य कण्णच्छेयणाणि य नासाछेयणाणि य एवं हिययउप्पाडणाणि य वसणुप्पाडणाणि य उल्लंबणाणि य पाविहिइ, पुणो अणाइयं च णं अणवंदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं वीइवइस्सइ ] जहा उ से कुम्मए गुत्तिंदिए।
___ हे आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो श्रमण या श्रमणी (आचार्य या उपाध्याय के निकट मुंडित होकर दीक्षित हुआ है), पांचों इन्द्रियों का गोपन करता है, जैसे उस कछुए ने अपनी इन्द्रियों को गोपन करके रखा था, वह इसी भव में बहुसंख्यक श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों और श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय वन्दनीय नमस्करणीय पूजनीय सत्करणीय और सम्माननीय होता है। वह कल्याण मंगल देवस्वरूप एवं चैत्यस्वरूप तथा उपासनीय बनता है।
परलोक में उसे हाथों, कानों और नाक के छेदन के दुःख नहीं भोगने पड़ते। हृदय के उत्पाटन, वृषणों-अंडकोषों के उखाड़ने, फांसी चढ़ने आदि के कष्ट नहीं झेलने पड़ते। वह अनादि-अनन्त संसारकांतार को पार कर जाता है।
१४-एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं चउत्थस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते त्ति बेमि।
अध्ययन का उपसंहार करते हुए सुधर्मा स्वामी कहते हैं-हे जम्बू! श्रमण भगवान् महावीर ने चौथे ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ कहा है, जैसा मैंने भगवान् से सुना है, वैसा ही मैं कहता हूँ।
॥ चतुर्थ अध्ययन समाप्त ॥