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________________ १५२] [ज्ञाताधर्मकथा निष्कर्ष १०–एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरियउवज्झायाणं अंतिए पव्वइए समाणे पंच य से इंदियाइं अगुत्ताइं भवंति, से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं सावगाणं साविगाणं हीलणिजे, परलोए वि य णं आगच्छइ बहूणि दंडणाणि जाव' अणुपरियट्टइ, जहा कुम्मए अगुत्तिंदिए। ___ इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो! हमारे जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य या उपाध्याय के निकट दीक्षित होकर पाँचों इन्द्रियों का गोपन नहीं करते हैं, वे इसी भव में बहुत साधुओं, साध्वियों, श्रावकों, श्राविकाओं द्वारा हीलना करने योग्य होते हैं और परलोक में भी बहुत दंड पाते हैं, यावत् अनन्त संसार में परिभ्रमण करते हैं, जैसे अपनी इन्द्रियों-अंगों का गोपन न करने वाला वह कछुआ मृत्यु को प्राप्त हुआ। संयत कूर्म __११-तए णं ते पावसियालया जेणेव से दोच्चए कुम्मए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तं कुम्मयं सव्वओ समंता उव्वत्तेति जाव' दंतेहिं अक्खुडंति जाव' करित्तए। तए णं ते पावसियालया दोच्चं पि तच्चं पि जाव नो संचाएंति तस्स कुम्मगस्स किंचि आबाहं वा पबाहं वा विबाहं वा जाव[ उप्पाएत्तए] छविच्छेयं वा करित्तए, ताहे संता तंता परितंता निम्विन्ना समाणा जामेव दिसिं पाउब्भूआ तामेव दिसिं पडिगया। तत्पश्चात् वे पापी सियार जहाँ दूसरा कछुआ था, वहाँ पहुँचे। पहुँच कर उस कछुए को चारों तरफ से, सब दिशाओं से उलट-पलट कर देखने लगे, यावत् दांतों से तोड़ने लगे, परन्तु उसकी चमड़ी का छेदन करने में समर्थ न हो सके। तत्पश्चात् वे पापी सियार दूसरी बार और तीसरी बार दूर चले गये किन्तु कछुए ने अपने अंग बाहर न निकाले, अतः वे उस कछुए को कुछ भी आबाधा या विबाधा अर्थात् थोड़ी या बहुत या अत्यधिक पीड़ा उत्पन्न न कर सके। यावत् उसकी चमड़ी छेदने में भी समर्थ न हो सके। तब वे श्रान्त, क्लान्त और परितान्त होकर तथा खिन्न होकर जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में लौट गए। १२-तए णं से कुम्मए ते पावसियालए चिरंगए दूरगए जाणित्ता सणियं सणियं गीवं नेणेइ, नेणित्ता दिसावलोयं करेइ, करित्ता जमगसमगंचत्तारि वि पाए नीणेइ, नीणेत्ता ताए उक्विाए कुम्मगईए वीइवयमाणे वीइवयमाणे जेणेव मयंगतीरद्दहे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता मित्तनाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणेणं सद्धिं अभिसमन्नागए यावि होत्था। तत्पश्चात् उस कछुए ने उस पापी सियारों को चिरकाल से गया और दूर गया जान कर धीरे-धीरे १-२. चतुर्थ अ.८
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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