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[ ज्ञाताधर्मकथा
सार्ववाहपुत्रों ने दोनों अंडे उठा लिये और अपने घर ले गए दोनों ने एक-एक बांट
लिया ।
सागरदत्त का पुत्र शंकाशील था। उसने उस अंडे का ले जाकर अपने घर के पहले के अंडों के साथ रख दिया जिससे उसकी मयूरियाँ अपने अंडों के साथ उसका भी पोषण करती रहें। इससे प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में घरों में भी मोर पाले जाते थे ।
काशीलता के कारण सागरदत्तपुत्र से रहा नहीं गया। वह उस अंडे के पास गया और विचार करने लगा - कौन जाने यह अंडा निपजेगा अथवा नहीं? इस प्रकार शंका, कांक्षा और विचिकित्सा से ग्रस्त होकर उसने अंडे को उलटा, पलटा, उलटफेर कर कानों के पास ले गया, उसे बजाया । वारंवार ऐसा करने से अंडा निर्जीव हो गया। उसमें से बच्चा नहीं निकला ।
इसके विपरीत जिनदत्तपुत्र श्रद्धासम्पन्न था। उसने विश्वास रखा। वह अंडा मयूर - पालकों को सौंप दिया। यथासमय बच्चा हुआ । उसे नाचना सिखलाया गया। अनेक सुन्दर कलाएं सिखलाई गईं। जिनदत्तपुत्र यह देखकर अत्यन्त हर्षित हुआ। नगर भर में उस मयूर - पोत की प्रसिद्धि हो गई। जिनदत्तपुत्र उसकी बदौलत हजारों-लाखों की बाजियाँ जीतने लगा ।
यह है अश्रद्धा और श्रद्धा का परिणाम । जो साधक श्रद्धावान् रहकर साधना में प्रवृत होता है, उसे इ भव में मान-सन्मान की और परभव में मुक्ति की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत अश्रद्धालु साधक इस भव में निन्दा-गर्दा का तथा परभवों में अनेक प्रकार के संकटों, दुःखों, पीडाओं और व्यथाओं का पात्र बनता है ।