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________________ तृतीय अध्ययन : अंडक सार: संक्षेप तृतीय अध्ययन का मुख्य स्वर है - जिन-प्रवचन में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा न करना । 'तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं' अर्थात् वीतराग और सर्वज्ञ ने जो तत्त्व प्रतिपादित किया है, वही सत्य है, उसमें शंका के लिए कोई अवकाश नहीं है। कषाय या अज्ञान कारण ही असत्य बोला जाता है, जिसमें ये दोनों दोष नहीं उसके वचन असत्य हो ही नहीं सकते । इस प्रकार की सुदृढ श्रद्धा के साथ मुक्ति-साधना के पथ पर अग्रसर होने वाला साधक ही अपनी साधना में पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकता है। उसकी श्रद्धा उसे अपूर्व शक्ति प्रदान करती है और उस श्रद्धा के बल पर वह सब प्रकार की विघ्न-बाधाओं पर विजय प्राप्त करता हुआ अपने अभीष्ट लक्ष्य की ओर आगे बढ़ता जाता है। यही कारण है कि सम्यग्दर्शन का प्रथम अंग या लक्षण 'निश्शंकितता' कहा गया है। इसके विपरीत जिसके अन्तःकरण में अपने लक्ष्य अथवा लक्ष्यप्राप्ति के साधनों में दृढ विश्वास नहीं होता, जिसका चित्त डांवाडोल होता है, जिसकी मनोवृत्ति ढुलमुल होती है, प्रथम तो उसमें आन्तरिक बल उत्पन्न ही नहीं होता और यदि वह हो तो भी वह उसका पूरी तरह उपयोग नहीं कर सकता। इस प्रकार अधूरे बल ओर अधूरे मनोयोग से कार्य की पूर्ण सिद्धि नहीं हो सकती । लौकिक कार्य हो अथवा लोकोत्तर, सर्वत्र पूर्ण श्रद्धा, समग्र उत्साह ओर परिपूर्ण मनोयोग को उसमें लगा देना आवश्यक है । सम्पूर्ण सफलता - प्राप्ति की यह अनिवार्य शर्त है । प्रस्तुत तृतीय अध्ययन में यही तथ्य उदाहरण द्वारा और फिर उपसंहार द्वारा साक्षात् रूप से प्रस्तुत किया गया है। दो पात्रों के द्वारा श्रद्धा का सुफल और अश्रद्धा का दुष्परिणाम दिलाया गया है। संक्षिप्त कथानक इस प्रकार है चम्पा नगरी में दो सार्थवाह - पुत्र रहते थे। जिनदत्तपुत्र और सागरदत्तपुत्र, इन्हीं संज्ञाओं से उनका उल्लेख किया गया है, उनके स्वयं के नामों का कोई उल्लेख नहीं है। दोनों अभिन्नहृदय मित्र थे । प्रायः साथ ही रहते थे । विदेशयात्रा हो या दीक्षाग्रहण, सभी प्रसंगों में साथ रहने का उन्होंने संकल्प किया था । किन्तु चितवृत्ति दोनों की एक दूसरे से विपरीत थी । एक बार दोनों साथी देवदत्ता गणिका को साथ लेकर चम्पा नगरी के सुभूमिभाग उद्यान में गए। वहाँ स्नान करके, भोजन - पानी से निवृत्त होकर, संगीत-नृत्य आदि द्वारा मनोरंजन, आमोद-प्रमोद करके उद्यान में परिभ्रमण करने लगे। उद्यान से लगा हुआ सघन झाड़ियों वाला एक प्रदेश- मालुकाकच्छ वहाँ था । वे मालुकाकच्छ की ओर गए ही थे कि एक मयूरी घबराहट और बेचैनी के साथ ऊपर उड़ी और निकट के एक वृक्ष की शाखा पर बैठ कर केका-रव करने लगी। यह दृश्य देखकर सार्थवाहपुत्रों को सन्देह हुआ। वे आगे बढ़े तो उन्हें दो अंडे दिखाई दिए।
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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