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द्वितीय अध्ययन : संघाट]
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बाहिरिया परिसा भवइ, तंजहा-दासाइ वा, पेस्साइ वा, भियगाइ वा भाइल्लगाइ वा, से वि य णं धण्णं सत्थवाहं एन्जंतं पासइ, पासित्ता पायवडियाए खेमकुसलं पुच्छति।
तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह को आता देखकर राजगृह नगर के बहुत-से आत्मीय जनों, श्रेष्ठी जनों तथा सार्थवाह आदि ने उसका आदर किया, सन्मान से बुलाया, वस्त्र आदि से सत्कार किया, नमस्कार आदि करके सन्मान किया, खड़े होकर मान किया और शरीर की कुशल पूछी।
तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह अपने घर पहुंचा। वहाँ जो बाहर की सभा थी, जैसे-दास (दासी पुत्र), प्रेष्य (काम-काज के लिए बाहर भेजे जाने वाले नौकर), भृतक (जिनका बाल्यावस्था से पालन-पोषण किया हो) और व्यापार के हिस्सेदार, उन्होंने भी धन्य सार्थवाह को आता देखा। देख कर पैरों में गिर कर क्षेम, कुशल की पृच्छा की।
४४-जाविय से तत्थ अब्भत्तरिया परिसा भवइ, तंजहा-मायाइ वा, पियाइ वा, भायाइ वा, भगिणीइ वा, सावि य णं धण्णं सत्थवाहं एजमाणं पासइ, पासित्ता आसणाओ अब्भुढेइ। अब्भुटेत्ता कंठाकंठियं अवयासिय बाहप्पमोक्खणं करेइ।
वहाँ जो आभ्यन्तर सभा थी, जैसे कि माता, पिता, भाई, बहिन आदि, उन्होंने भी धन्य सार्थवाह को आता देखा। देखकर वे आसन से उठ खड़े हुए, उठकर गले से गला मिलाकर उन्होंने हर्ष के आँसू बहाये। भद्रा के कोप का उपशमन
४५-तए णं से धण्णं सत्थवाहे जेणेव भद्दा भारिया तेणेव उवागच्छइ।तए णंसा भद्दा सत्थवाहीधण्णं सत्थवाहं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता णो आढाइ, नो परियाणाइ, अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी तुसिणीया परम्मुही संचिट्ठइ।
तए णं से धण्णे सत्थवाहे भई भारियं एवं वयासी-किं णं तुब्भं देवाणुप्पिए, न तुट्ठी वा, न हरिसे वा, नाणंदे वा? जं मए सएणं अत्थसारेणं रायकज्जाओ अप्पाणं विमोइए।
तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह भद्रा भार्या के पास गया। भद्रा सार्थवाह ने धन्य सार्थवाह को अपनी ओर आता देखा। देखकर न उसने आदर किया, न मानो जाना। न आदर करती हुई और न जानती हुई वह मौन रह कर और पीठ फेर कर (विमुख होकर) बैठी रही।
तब धन्य सार्थवाह ने अपनी पत्नी भद्रा से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिये! मेरे आने से तुम्हें सन्तोष क्यों नहीं है ? हर्ष क्यों नहीं है? आनन्द क्यों नहीं है? मैंने अपने सारभूत अर्थ से राजकार्य (राजदंड) से अपने आपको छुड़ाया है।
४६-तए णं भद्दा धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी-'कहं णं देवाणुप्पिया! मम तुट्ठी वा जाव (हरिसे वा) आणंदे वा भविस्सइ, जेणं तुमं मम पुत्तघायगस्स जाव पच्चामित्तस्स तओ विपुलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करेसि?
तब भद्रा ने धन्य सार्थवाह से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! मुझे क्यों सन्तोष, हर्ष और आनन्द होगा, जब कि तुमने मेरे पुत्र के घातक यावत् वैरी तथा प्रत्यमित्र (विजय चोर) को उस विपुल अशन, पान,