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द्वितीय अध्ययन : संघाट]
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कसों से बाँधा और शरीर पर धारण किया। धनुष रूपी पट्टिका पर प्रत्यंचा चढ़ाई अथवा भुजाओं पर पट्टा बाँधा। आयुध (शस्त्र) और प्रहण (दूर से चलाए जाने वाले तीर आदि) ग्रहण किये। फिर धन्य सार्थवाह के साथ राजगृह नगर के बहुत-से निकलने के मार्गों यावत् दरवाजों, पीछे की खिड़कियों, छेड़ियों, किले की छोटी खिड़कियों, मोरियों, रास्ते मिलने की जगहों, रास्ते अलग-अलग होने के स्थानों, जुआ के अखाड़ों, मदिरापान के स्थानों, वेश्या के घरों, उनके घरों के द्वारों (चोरों के अड्डों) चोरों के घरों, शृंगाटकों-सिंघाड़े के आकार के मार्गों, तीन मार्ग मिलने के स्थानों, चौकों, अनेक मार्ग मिलने के स्थानों, नागदेव के गृहों, भूतों के गृहों, यक्षगृहों, सभास्थानों, प्याउओं आदि में तलाश करते-करते राजगृह नगर से बाहर निकले। निकल कर जहाँ जीर्ण उद्यान था और जहाँ भग्न कूप था, वहां आये। आकर उस कूप में निष्प्राण, निश्चेष्ट एवं निर्जीव देवदत्त का शरीर देखा, देखकर 'हाय, हाय''अहो अकार्य!' इस प्रकार कह कर उन्होंने देवदत्त कुमार को उस भग्न कूप से बाहर निकाला और धन्य सार्थवाह के हाथों में सौंप दिया। विजय चोर का निग्रह
२९-तए णं ते नगरगुत्तिया। विजयस्स तक्करस्स पयमग्गमणुगच्छमाणा जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता मालुयाकच्छयं अणुपविसंति, अणुपविसित्ता विजयं तक्करं ससक्खं सहोडं सगेवेज्जंजीवग्गाहं गिण्हंति।गिण्हित्ता अट्ठि-मुट्ठि-जाणु-कोप्परपहारसंभग्गमहियगत्तं करेन्ति।करित्ता अवाउडबंधणं करेन्ति।करित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स आभरणं गेण्हंति।गेण्हित्ता विजयस्स तक्करस्स गीवाए बंधंति, बंधित्ता मालुयाकच्छयाओ पडिनिक्खमंति। पडिणिक्खमित्ता जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छति। उवागच्छित्ता रायगिहं नगरं अणुपविसंति। अणुपविसित्ता रायगिहे नगरे सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-महापह-पहेसु कसप्पहारे य लयप्पहारे य छिवापहारे य निवाएमाणा निवाएमाणा छारं च धूलिं च कयवरं च उवरिंपक्किरमाणा पक्किरमाणा महया महया सहेणं उग्रोसेमाणा एवं वदंति
तत्पश्चात् वे नगररक्षक विजय चोर के पैरों के निशानों का अनुसरण करते हुए मालुकाकच्छ में पहुंचे। उसके भीतर प्रविष्ट हुए। प्रविष्ट होकर विजय चोर को पंचों की साक्षीपूर्वक, चोरी के माल के साथ, गर्दन से बाँधा और जीवित पकड़ लिया। फिर अस्थि (हड्डी की लकड़ी), मुष्टि से घुटनों और कोहनियों आदि पर प्रहार करके शरीर को भग्न और मथित कर दिया-ऐसी मार मारी कि उसका सारा शरीर ढीला पड़ गया। उसकी गर्दन और दोनों हाथ पीठ की तरफ बाँध दिए। फिर बालक देवदत्त के आभरण कब्जे में किये। तत्पश्चात् विजय चोर को गर्दन से बाँधा और मालुकाकच्छ से बाहर निकले। निकल कर जहाँ राजगृह नगर था, वहाँ आये। वहाँ आकर राजगृह नगर में प्रविष्ट हुए और नगर के त्रिक, चतुष्क, चत्वर एवं महापथ आदि मार्गों में कोड़ों के प्रहार, छड़ियों के प्रहार, छिव (कंबा) के प्रहार करते-करते और उसके ऊपर राख, धूल और कचरा डालते हुए तेज आवाज से घोषित करते हुए इस प्रकार कहने लगे
३०-'एस णं देवाणुप्पिया! विजए नामं तक्करे जाव' गिद्धे विव आमिसभक्खी
१. द्वि. अ. सूत्र ९