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________________ ११६] [ज्ञाताधर्मकथा अतएव हे देवानुप्रिय! आपकी आज्ञा हो तो मैं भी दोहद पूर्ण करना चाहती हूँ। सार्थवाह ने कहा-हे देवानुप्रिय! जिस प्रकार सुख उपजे वैसा करो। उसमें ढील मत करो। १८-तएणं सा भद्दा सत्थवाही धण्णेणं सत्थवाहेणं अब्भणुनाया समाणी हट्ठतुट्ठा जाव विउलंअसणपाणखाइमसाइमंजाव उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता ण्हाया जाव(कयबलिकम्मा) उल्लपडसागडा जेणेव णागघरए जाव' धूवं दहइ। दहित्ता पणामं करेइ, पणामं करेत्ता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ। तए णं ताओ मित्त-नाइ जाव नगरमहिलाओ भई सत्थवाहिं सव्वालंकार-विभूसियं करेइ। तए णं सा भद्दा सत्थवाही ताहिं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणणगरमहिलियाहिं सद्धिं तं विउलं असणपाणखाइमसाइमं जाव परिभुंजेमाणी य दोहलं विणेइ। विणित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह से आज्ञा पाई हुई भद्रा सार्थवाही हृष्ट-तुष्ट हुई। यावत् विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करके यावत् स्नान तथा बलिकर्म करके यावत् पहनने और ओढ़ने का गीला वस्त्र धारण करके जहाँ नागायतन आदि थे, वहाँ आई। यावत् धूप जलाई तथा बलिकर्म एवं प्रणाम किया। प्रणाम करके जहाँ पुष्करिणी थी, वहाँ आई। आने पर उन मित्र, ज्ञाति यावत् नगर की स्त्रियों ने भद्रा सार्थवाही को सर्व आभूषणों से अलंकृत किया। ____ तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही ने उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन एवं नगर की स्त्रियों के साथ विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का यावत् परिभोग करके अपने दोहद को पूर्ण किया। पूर्ण करके जिस दिशा से वह आई थी, उसी दिशा में लौट गई। पुत्र-प्रसव १९-तए णं सा भद्दा सत्थवाही संपुन्नडोहला जाव' तं गब्भं सुहेसुहेणं परिवहइ। तए णं सा भद्दा सत्थवाही णवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अद्धट्ठमाण राइंदियाणं सुकुमाल-पाणि-पायं जाव सव्वंगसुंदरंगं दारगं पयाया। तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही दोहद पूर्ण करके सभी कार्य सावधानी से करती तथा पथ्य भोजन करती हुई यावत् उस गर्भ को सुखपूर्वक वहन करने लगी। तत्पश्चात् उस भद्रा सार्थवाही ने नौ मास सम्पूर्ण हो जाने पर और साढ़े सात दिन-रात व्यतीत हो जाने पर सुकुमार हाथों-पैरों वाले बालक का प्रसव किया। देवदत्त-नामकरण २०-तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे जातकम्मं करेन्ति, करित्ता तहेव जाव विउलं असणपाणखाइमसाइमं उवक्खडावेंति, उवक्खडावित्ता तहेव मित्तनाइ० भोयावेत्ता अयमेयारूवं गोण्णं गुणनिष्फण्णं नामधेनं करेंति-'जम्हाणं अम्हं इमे दारए बहूणं नागपडिमाण य जाव वेसमणपडिमाण य उवाइयलद्धे णं तं होउ णं अम्हं इमे दारए देवदिन्ननामेणं।' १. द्वि. अ. सूत्र १५ २. प्र. अ. सूत्र ८६ ३. प्र. अ. सूत्र ९३-९५ ४. द्वि. अ. सूत्र १२
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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