SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११०] [ज्ञाताधर्मकथा दुटुसीलायारचरित्ते, जूयपसंगी, मज्जपसंगी भोजपसंगी, मंसपसंगी, दारुणे, हिययदारए, साहसिए, संधिच्छेयए, उवहिए, विस्संभघाई, आलीयगतित्थभेय-लहुहत्थसंपउत्ते, परस्स दव्वहरणम्मि निच्चं अणुबद्धे, तिव्ववेरे। रायगिहस्स नगरस्स बहुणि अइगमणाणि य निग्गमणाणि य दाराणि य अवदाराणि य छिंडिओ य खंडिओ य नगरनिद्धमणाणि य संवट्टणाणि य निव्वट्टणाणि य जूयखलयाणि य पाणागाराणि य वेसागाराणि य तद्दारट्ठाणाणि (तक्करट्ठाणाणि) य तक्करघराणि य सिंघाडगाणि यतियाणि य चउक्काणि य चच्चराणि य नागघराणि य भूयघराणि य जक्खदेउलाणि य सभाणि य पवाणि य पाणियसालाणि य सुन्नघराणि य आभोएमाणे आभोएमाणे मग्गमाणे गवसमाणे, बहुजणस्स छिद्देसुय विसमेसुय विहुरेसुय वसणेसुय अब्भुदएसु य उस्सवेसुय पसवेसुय तिहीसु य छणेसु य जन्नेसु य पव्वणीसु य मत्तपमत्तस्स य वक्खित्तस्स य वाउलस्स य सुहियस्स सदुक्खियस्स य विदेसत्थस्स य विप्पवसियस्स य मग्गं च छिद्द च विरहं च अन्तरं च मग्गमाणे गवेसमाणे एवं च णं विहरइ। ___ उस राजगृह में विजय नामक एक चोर था। वह पाप कर्म करने वाला, चाण्डाल के समान रूप वाला, अत्यन्त भयानक और क्रूर कर्म करने वाला था। क्रुद्ध हुए पुरुष के समान देदीप्यमान और लाल उसके नेत्र थे। उसकी दाढ़ी या दाढ़ें अत्यन्त कठोर, मोटी, विकृत और बीभत्स (डरावनी) थीं। उसके होठ आपस में मिलते नहीं थे, अर्थात् दाँत बड़े और बाहर निकले हुए थे और होठ छोटे थे। उसके मस्तक के केश हवा से उड़ते रहते थे, बिखरे रहते थे और लम्बे थे। वह भ्रमर और राहु के समान काला था। वह दया और पश्चात्ताप से रहित था। दारुण (रौद्र) था और इसी कारण भय उत्पन्न करता था। वह नशंस-नरसंघातक था। उसे प्राणियों पर अनुकम्पा नहीं थी। वह साँप की भाँति एकान्त दृष्टि वाला था, अर्थात् किसी भी कार्य के लिए पक्का निश्चय कर लेता था। वह छुरे की तरह एक धार वाला था, अर्थात् जिसके घर चोरी करने का निश्चय करता उसी में पूरी तरह संलग्न हो जाता था। वह गिद्ध की तरह मांस का लोलुप था और अग्नि के समान सर्वभक्षी था अर्थात् जिसकी चोरी करता, उसका सर्वस्व हरण कर लेता था। जल के समान सर्वग्राही था, अर्थात् नजर पर चढ़ी सब वस्तुओं का अपहरण कर लेता था। वह उत्कंचन में (हीन गुण वाली वस्तु को अधिक मूल्य लेने के लिए उत्कृष्ट गुण वाली बताने में), वंचन (दूसरों को ठगने) में, माया (पर को धोखा देने की बुद्धि) में, निकृति (बगुला के समान ढोंग करने में), कूट में अर्थात् तोल-नाप को कम-ज्यादा करने में और कपट करने में अर्थात् वेष और भाषा को बदलने में अति निपुण था। साति-संप्रयोग में अर्थात् उत्कृष्ट वस्तु में मिलावट करने में भी निपुण था या अविश्वास करने में चतुर था। वह चिरकाल से नगर में उपद्रव कर रहा था। उसका शील, आचार और चरित्र अत्यन्त दूषित था। वह द्यूत से आसक्त था, मदिरापान में अनुरत्त था, अच्छा भोजन करने में गृद्ध था और मांस में लोलुप था। लोगों के हृदय को विदारण कर देने वाला, साहसी अर्थात् परिणाम का विचार न करके कार्य करने वाला, सेंध लगाने वाला, गुप्त कार्य करने वाला, विश्वासघाती और आग लगा देने वाला था। तीर्थ रूप देवद्रोणी (देवस्थान) आदि का भेदन करके उसमें से द्रव्य हरण करने वाला और हस्तलाघव वाला था। पराया द्रव्य हरण करने में सदैव तैयार रहता था तीव्र वैर वाला था।
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy