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प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात]
[८१ हे मेघ! वहाँ तुम किनारे से तो दूर चले गये परन्तु पानी तक न पहुँच पाये और बीच ही में कीचड़ में फंस गये।
हे मेघ! 'मैं पानी पीऊँ' ऐसा सोचकर वहाँ अपनी सूंड फैलाई, मगर तुम्हारी सूंड भी पानी न पा सकी। तब हे मेघ! तुमने पुनः 'शरीर को कीचड़ से बाहर निकालूं' ऐसा विचार कर जोर मारा तो कीचड़ में और गाढ़े फँस गये।
१७०–तएणं तुम मेहा! अन्नया कयाइ एगे चिरनिजूढे गयवरजुवाणए सयाओ जूहाओ कर-चरण-दंतमुसल-प्पहारेहिं विप्परद्धे समाणे तं चेव महद्दहं पाणीयं पाएउं समोयरेइ।
तएणंसे कलभए तुमं पासति, पासित्ता तं पुव्ववेरं समरइ।समरित्ता आसुरुत्ते रुढे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे जेणेव तुमं तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता तुमं तिक्खेहिं दंतमुसलेहिं तिक्खुत्तो पिट्ठाओ उच्छुभइ।उच्छुभित्ता पुव्ववेरं निजाएइ।निजाइत्ता हट्ठतुढे पाणियं पियइ।पिइत्ता जामेव दिसिं दाउब्भूए तामेव दिसिं पडगए।
तत्पश्चात् हे मेघ! एक बार कभी तुमने एक नौजवान श्रेष्ठ हाथी को सूंड, पैर और दाँत रूपी मूसलों से प्रहार करके मारा था और अपने झुंड में से बहुत समय पूर्व निकाल दिया था। वह हाथी पानी पीने के लिए उसी सरोवर में उतरा।
उस नौजवान हाथी ने तुम्हें देखा। देखते ही उसे पूर्व वैर का स्मरण हो गया। स्मरण आते ही उसमें क्रोध के चिह्न प्रकट हुए। उसका क्रोध बढ़ गया। उसने रौद्र रूप धारण किया और वह क्रोधाग्नि से जल उठा। अतएव वह तुम्हारे पास आया। आकर तीक्ष्ण दाँत रूपी मूसलों से तीन बार तुम्हारी पीठ बींध दी और बींध कर पूर्व वैर का बदला लिया। बदला लेकर हृष्ट-तुष्ट होकर पानी पीया। पानी पीकर जिस दिशा से प्रकट हुआ थाआया था, उस दिशा में वापिस लौट गया।
१७१-तए णं तव मेहा! सरीरगंसि वेयणा पाउब्भवित्था उज्जला विउला तिउला कक्खडा जाव [ पगाढा चंडा दुक्खा] दुरहियासा, पित्तजरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए यावि विहरित्था।
तए णं तुम मेहा! तं उज्जलं जाव[विउलं कक्खडं पगाढं चंडं दुक्खं ] दुरहियासं सत्तराइंदियं वेयणं वेएसि; सवीसं वाससयं परमाउं पालइत्ता अट्टवसट्टदुहट्टे कालमासे कालं किच्चा इहेव जंबुद्दीवे भारहे वासे दाहिणड्डभरहे गंगाए महाणदीए दाहिणे कूले विंझगिरिपायमूले एगेणं मत्तवरगंधहत्थिणा एगाए गयवरकरेणूए कुच्छिसि गयकलभए जणिए। तए णं सा गयकलभिया णवण्हं मासाणं वसंतमासम्मि तुमं पयाया।
तत्पश्चात् हे मेघ! तुम्हारे शरीर में वेदना उत्पन्न हुई। वह वेदना ऐसी थी कि तुम्हें तनिक भी चैन न था, वह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त थी और त्रितुला थी (मन वचन काय की तुलना करने वाली थी, अर्थात् उस वेदना में तुम्हारे तीनों योग तन्मय हो रहे थे)। वह वेदना कठोर यावत् बहुत ही प्रचण्ड थी, दुस्सह थी। उस वेदना के कारण तुम्हारा शरीर पित्त-ज्वर से व्याप्त हो गया और शरीर में दाह उत्पन्न हो गया। उस समय तुम इस बुरी हालत में रहे।