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________________ ८० ] [ ज्ञाताधर्मकथा व्यतीत हो जाने पर ग्रीष्म ऋतु का समय आया । तब ज्येष्ठ मास में, वृक्षों की आपस की रगड़ से उत्पन्न हुई तथा सूखे घास, पत्तों और कचरे से एवं वायु के वेग से प्रदीप्त हुई अत्यन्त भयानक अग्नि से उत्पन्न वन के दावानल की ज्वालाओं से वन का मध्य भाग सुलग उठा। दिशाएँ धुएँ से व्याप्त हो गईं। प्रचण्ड वायु-वेग से अग्नि की ज्वालाएँ टूट जाने लगीं और चारों ओर गिरने लगी। पोले वृक्ष भीतर ही भीतर जलने लगे। वन-प्रदेशों के नदीनालों का जल मृत मृगादिक के शवों से सड़ने लगा -खराब हो गया। उनका कीचड़ कीड़ों से व्याप्त हो गया। उनके किनारों का पानी सूख गया। भृंगारक पक्षी दीनता पूर्वक आक्रन्दन करने लगे। उत्तम वृक्षों पर स्थित काक अत्यन्त कठोर और अनिष्ट शब्द कांव-कांव करने लगे। उन वृक्षों के अग्रभाग अग्निकणों के कारण मूंगे समान लाल दिखाई देने लगे। पक्षियों के समूह प्यास से पीड़ित होकर पंख ढीले करके, जिह्वा एवं तालु को बाहर निकाल करके तथा मुँह फाड़कर सांसें लेने लगे। ग्रीष्मकाल की उष्णता, सूर्य के ताप, अत्यन्त कठोर एवं प्रचंड वायु तथा सूखे घास के पत्तों और कचरे से युक्त बवंडर के कारण भाग-दौड़ करने वाले, मदोन्मत्त एवं घबराए सिंह आदि श्वापदों के कारण पर्वत आकुल-व्याकुल हो उठे। ऐसा प्रतीत होने लगा मानो उन पर्वतों पर मृगतृष्णा रूप पट्टबंध बंधा हो । त्रास को प्राप्त मृग, अन्य पशु और सरीसृप इधर-उधर तड़फने लगे। इस भयानक अवसर पर, हे मेघ ! तुम्हारा अर्थात् तुम्हारे पूर्वभव के सुमेरुप्रभ नामक हाथी का मुखविवर फट गया। जिह्वा का अग्रभाग बाहर निकल आया। बड़े-बड़े दोनों कान भय से स्तब्ध और व्याकुलता के कारण शब्द ग्रहण करने में तत्पर हुए। बड़ी और मोटी सूंड सिकुड़ गई। उसने पूंछ ऊँची करली। पीना (मड्डा) के समान विरस अर्राटे के शब्द - चीत्कार से वह आकाशतल को फोड़ता हुआ-सा, सीत्कार करता हुआ, चहुँ ओर सर्वत्र बेलों के समूह को छेदता हुआ, त्रस्त और बहुसंख्यक सहस्रों वृक्षों को उखाड़ता हुआ, राज्य भ्रष्ट हुए राजा के समान, वायु से डोलते हुए जहाज के समान और बवंडर (वगडूंरे) के समान इधरउधर भ्रमण करता हुआ एवं बार-बार लींड़ी त्यागता हुआ, बहुत-से हाथियों (हथिनियों, लोट्टकों, लोट्टिकाओं, कलभों तथा कलभिकाओं) के साथ दिशाओं और विदिशाओं में इधर-उधर भागदौड़ करने लगा। १६८ – तत्थ णं तुमं मेहा! जुन्ने जराजज्जरियदेहे आउरे झंझिए पिवासिए दुब्बले किलंते नट्ठसुइए मूढदिसाए सयाओ जूहाओ विप्पहूणे वणदवजालापारद्धे उण्हेण य, तण्हाए य, छुहाए परभाह समाणे भीए तत्थे तसिए उव्विग्गे संजायभए सव्वओ समंता आधावमाणे परिधावमाणे एगं चणं महं सरं अप्पोदयं पंकबहुलं अतित्थेणं पाणियपाए उन्नो । हे मेघ! तुम वहाँ जीर्ण, जरा से जर्जरित देह वाले, व्याकुल, भूखे-प्यासे, दुबले, थके-मांदे, बहिरे तथा दिङ्मूढ होकर अपने यूथ (झुंड) से बिछुड़ गये। वन के दावानल की ज्वालाओं से पराभूत हुए। गर्मी से, प्यास से और भूख से पीड़ित होकर भय से घबरा गए, त्रस्त हुए। तुम्हारा आनन्द - रस शुष्क हो गया। इस विपत्ति से कैसे छुटकारा पाऊँ, ऐसा विचार करके उद्विग्न हुए। तुम्हें पूरी तरह भय उत्पन्न हो गया। अतएव तुम -उधर दौड़ने और खूब दौड़ने लगे। इसी समय अल्प जलवाला और कीचड़ की अधिकता वाला एक बड़ा सरोवर तुम्हें दिखाई दिया। उसमें पानी पीने के लिए बिना घाट के ही तुम उतर गये । १६९ - तत्थ णं तुमं मेहा! तीरमइगए पाणियं असंपत्ते अंतरा चेव सेयंसि विसन्ने । तत्थ णं तुमं मेहा! पाणियं पाइस्सामि त्ति कट्टु हत्थं पसारेसि, से वि य ते हत्थे उदगं न पावेइ। तए णं तुमं मेहा! पुणरवि कायं पच्चद्धरिस्सामि त्ति कट्टु बलियतरायं पंकंसि खुत्ते ।
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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