SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६] [ज्ञाताधर्मकथा बार लांघा। किसी-किसी ने अपने पैरों की रज से उसे भर दिया या पैरों के वेग से उड़ती हुई रज से वह भर गया। इस प्रकार लम्बी रात्रि में मेघकुमार क्षण भर भी आँख बन्द नहीं कर सका। १६२-तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव [ चिंतिए पत्थिए मणोगते संकप्पे] समुप्पजित्था-'एवं खलु अहं सेणियस्स रन्नो पुत्ते, धारिणीए देवीए अत्तए मेहे जाव' सवणयाए, तं जया णं अहं अगारमझे वसामि, तया णं मम समणा निग्गंथा आढायंति, परिजाणंति, सक्कारेंति, संमाणेति अट्ठाई हेऊइं पसिणाइं कारणाइं वागरणाई आइक्खंति, इट्ठाहिं कंताहिं वग्गूहिं आलवेन्ति, संलवेन्ति, जप्पभिई च णं अहं मुंडे भवित्ता अगाराणो अणगारियं पव्वइए, तप्पभिइं च णं मम समणा नो आढायंति जाव नो संलवन्ति। अदुत्तरं च णं मम समणा निग्गंथा राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि वायणाए पुच्छणाय जाव' महालियं च णं रत्तिं नो संचाएमि अच्छि निमिलावेत्तए। तं सेयं खलु मज्झं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलंते समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि अगारमझे वसित्तए'त्ति कट्टएवं संपेहेइ।संपेहित्ता अट्टदुहट्टवसट्टमाणसगए णिरयपडिरूवियं च णं तं रयणिं खवेइ, खवित्ता कल्लं पाउप्पभायाए सुविमलाए रयणीए जाव तेयसा जलंते जेणेव भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ। करित्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नसंसित्ता जाव पज्जुवासइ। तब मेघकुमार के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय [चिन्तन, प्रार्थित एवं मानसिक संकल्प] उत्पन्न हुआ–'मैं श्रेणिक राजा का पुत्र और धारिणी देवी का आत्मज (उदरजात) मेघकुमार हूँ।' अर्थात् [इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ मणाम हूँ, मेरा दर्शन तो दूर] गूलर के पुष्प के समान मेरा नाम श्रवण करना भी दुर्लभ है। जब मैं घर में रहता था, तब श्रमण निर्ग्रन्थ मेरा आदर करते थे, 'यह कुमार ऐसा है' इस प्रकार जानते थे, सत्कार सन्मान करते थे, जीवादि पदार्थों को, उन्हें सिद्ध करने वाले हेतुओं को, प्रश्नों को, कारणों को और व्याकरणों (प्रश्न के उत्तरों) को कहते थे और बार-बार कहते थे। इष्ट और मनोहर वाणी से मेरे साथ आलाप-संलाप करते थे। किन्तु जब से मैंने मुंडित होकर, गृहवास से निकलकर साधु-दीक्षा अंगीकार की है, तब से लेकर साधु मेरा आदर नहीं करते, यावत् आलाप-संलाप नहीं करते। तिस पर भी वे श्रमण निर्ग्रन्थ पहली और पिछली रात्रि के समय वाचना, पृच्छना आदि के लिए जाते-जाते मेरे संस्तारक को लांघते हैं और मैं इतनी लम्बी रात भर में आँख भी न मीच सका। अतएव कल रात्रि के प्रभात रूप होने पर यावत् तेज जाज्वल्यमान होने पर (सर्योदय के पश्चात) श्रमण भगवान महावीर से आज्ञा लेकर पुनः गृहवास में वसना ही मेरे लिए अच्छा है।' मेघकुमार ने ऐसा विचार किया। विचार करके आर्तध्यान के कारण दुःख से पीड़ित और विकल्पयुक्त मानस को प्राप्त होकर मेघकुमार ने वह रात्रि नरक की भाँति व्यतीत की। रात्रि व्यतीत करके प्रभात होने पर, सूर्य के तेज से जाज्वल्यमान होने पर, जहाँ श्रमण भगवान् थे, वहाँ आया। आकर तीन वार आदक्षिण प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके भगवान् को वन्दन किया, नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके यावत् (न बहुत निकट, न बहुत दूर-समुचित स्थान पर स्थित होकर विनय-पूर्वक) भगवान् की पर्युपासना करने लगा। १. प्र. अ. सूत्र १५६ २. प्र. अ. सूत्र १६१ ३-४. प्र. अ. सूत्र २८ ५. प्र. अ. सूत्र ११३.
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy