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प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात]
[७५ तए णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए इमं एयारूवं धम्मियं उवएसं णिसम्म सम्म पडिवजइ।तमाणाए तह गच्छइ, तह चिट्ठइ, जाव उठाए उट्ठाय पाणेहिं भूएहिं जीवेटिं सत्तेहिं संजमइ।
तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने मेघकुमार को स्वयं ही प्रव्रज्या प्रदान की और स्वयं ही यावत् आचार-गोचर आदि धर्म की शिक्षा दी। वह इस प्रकार-हे देवानुप्रिय! इस प्रकार-पृथ्वी पर युग मात्र दृष्टि रखकर चलना चाहिए, इस प्रकार-निर्जीव भूमी पर खड़ा होना चाहिए, इस प्रकार-भूमि की प्रमार्जना करके बैठना चाहिए, इस प्रकार-सामायिक का उच्चारण करके शरीर की प्रमार्जना करके शयन करना चाहिए. इस प्रकार-वेदना आदि कारणों से निर्दोष आहार करना चाहिए, इस प्रकार-हित-मित और मधुर भाषण करना चाहिए। इस प्रकार-अप्रमत्त एवं सावधान होकर प्राण (विकलेन्द्रिय), भूत (वनस्पतिकाय), जीव (पंचेन्द्रिय) और सत्त्व(शेष एकेन्द्रिय) की रक्षा करके संयम का पालन करना चाहिए। इस विषय में तनिक भी प्रमाद नहीं करना चाहिए।
तत्पश्चात् मेघकुमार ने श्रमण भगवान् महावीर के निकट इस प्रकार का धर्म सम्बन्धी यह उपदेश सुनकर और हृदय में धारण करके सम्यक् प्रकार से उसे अंगीकार किया। वह भगवान् की आज्ञा के अनुसार गमन करता, उसी प्रकार बैठता यावत् उठ-उठ कर अर्थात् प्रमाद और निद्रा त्याग करके प्राणों, भूतों, जीवों और संत्त्वों की यतना करके संयम का आराधन करने लगा। मेघकुमार का उद्वेग
१६१-जं दिवसं च णं मेहे कुमारे मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, तस्स णं दिवसस्स पच्चावरण्हकालसमयंसि समणाणं निग्गंथाणं अहाराइणियाए सेज्जासंथारएसु विभज्जमाणेसु मेहकुमारस्स दारमूले सेज्जासंथारए जाए यावि होत्था।
तए णं समणा निग्गंथा पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्माणुजोगचिंताए य उच्चारस्स य पासवणस्स य अइगच्छमाणा य निग्गच्छमाणा य अप्पेगइया मेहं कुमारं हत्थेहिं संघटुंति, एवं पाएहिं, सीसे पोट्टे कायंसि, अप्पेगइया ओलंडेन्ति, अप्पेगइया पोलंडेन्ति, अप्पेगइया पायरयरेणुगुंडियं करेन्ति। एवं महालियं च णंरयणिं मेहे कुमारेणो संचाएइ खणमवि अच्छिं निमीलित्तए।
जिस दिन मेघकुमार ने मुंडित होकर गृहवास त्याग कर चारित्र अंगीकार किया, उसी दिन के सन्ध्याकाल में रात्निक क्रम से अर्थात् दीक्षापर्याय के अनुक्रम से, श्रमण निर्गन्थों के शय्यासंस्तारकों का विभाजन करते समय मेघकुमार का शय्या-संस्तारक द्वार के समीप हुआ।
तत्पश्चात् श्रमण निर्ग्रन्थ अर्थात् अन्य मुनि रात्रि के पहले और पिछले समय में वाचना के लिए, पृच्छना के लिए, परावर्तन (श्रुत की आवृत्ति) के लिए, धर्म के व्याख्यान का चिन्तन करने के लिए, उच्चार (बड़ी नीति) के लिए एवं प्रस्रवण (लघु नीति) के लिए प्रवेश करते थे और बाहर निकलते थे। उनमें से किसी-किसी साधु के हाथ का मेघकुमार के साथ संघट्टन हुआ, इसी प्रकार किसी के पैर की मस्तक से और किसी के पैर की पेट से टक्कर हुई। कोई-कोई मेघकुमार को लांघ कर निकले और किसी-किसी ने दो-तीन