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________________ ४२] [ज्ञाताधर्मकथा में, सामान्य वृक्षों से युक्त काननों में नगर से दूरवर्ती वनों में, एक जाति के वृक्षों के समूह वाले वनखण्डों में, वृक्षों में, वृन्ताकी आदि के गुच्छाओं में, बांस की झाड़ी आदि गुल्मों में, आम्र आदि की लताओं अर्थात् पौधों में, नागरवेल आदि की वल्लियों में, गुफाओं में, दरी (शृगाल आदि के रहने के गड़हों में), चुण्डी (बिना खोदे आप ही बनी जल की तलैया) में, हृदों-तालाबों में, अल्प जल वाले कच्छों में, नदियों में, नदियों के संगमों में और अन्य जलाशयों में, अर्थात् इन सबके आसपास खड़ी होती हुई, वहाँ के दृश्यों को देखती हुई, स्नान करती हुई, पत्रों, पुष्पों, फलों और पल्लवों (कौंपलों) को ग्रहण करती हुई, स्पर्श करके उनका मान करती हुई, पुष्पादिक को सूंघती हुई, फल आदि का भक्षण करती हुई और दूसरों को बाँटती हुई, वैभारगिरि के समीप की भूमि में अपना दोहद पूर्ण करती हुई चारों ओर परिभ्रमण करने लगी। इस प्रकार धारिणी देवी ने दोहद को दूर किया, दोहद को पूर्ण किया और दोहद को सम्पन्न किया। ८३-तए णं सा धारिणी देवी सेयणगगंधहत्थिं दुरूढा समाणी सेणिएणं हत्थिखंधवरगएणं पिट्ठओ पिट्ठओ समणुगम्ममाणमग्गा हयगय जाव' रहेणं जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छइ।उवागच्छित्ता रायगिहं नगरं मझं मझेणं जेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छति। उवागच्छिता विउलाई माणुस्साई भोगभोगाइं जाव (पच्चणुभवमाणी) विहरति। तत्पश्चात् धारिणी देवी सेचनक नामक गंधहस्ती पर आरूढ हुई। श्रेणिक राजा श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर बैठकर उसके पीछे-पीछे चलने लगे। अश्व हस्ती आदि से घिरी हुई वह जहाँ राजगृह नगर है, वहाँ आती है। राजगृह नगर के बीचोंबीच होकर जहाँ अपना भवन है, वहाँ आती है। वहाँ आकर मनुष्य संबंधी विपुल भोग भोगती हुई विचरती है। देव का विसर्जन ८४-तएणं से अभयकुमारे जेणामेव पोसहसाला तेणामेव उवागच्छइ।उवागच्छइत्ता पुव्वसंगतियं देवं सक्कारेइ। सक्कारित्ता सम्माणित्ता पडिविसजेति। तत्पश्चात् वह अभयकुमार जहाँ पौषधशाला है, वहीं आता है। आकर पूर्व के मित्र देव का सत्कारसम्मान करके उसे विदा करता है। ८५-तए णं से देवे सगजियं पंचवण्णं महोवसोहियं दिव्वं पाउससिरिंपडिसाहरति, पडिसाहरित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए, तामेव दिसिं पडिगए। तत्पश्चात् अभयकुमार द्वारा विदा किया हुआ वह देव गर्जना से युक्त पंचरंगी मेघों से सुशोभित दिव्य वर्षा-लक्ष्मी का प्रतिसंहरण करता है, अर्थात् उसे समेट लेता है। प्रतिसंहरण करके जिस दिशा से प्रकट हुआ था उसी दिशा में चला गया, अर्थात् अपने स्थान पर गया। गर्भ की सुरक्षा ८६-तएणं सा धारिणी देवी तंसि अकालदोहलंसि विणीयंसी संमाणिडयोहला तस्स १. प्र. अ. सूत्र ८२
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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