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प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात]
[४१ तत्पश्चात् वह धारिणी देवी श्रेणिक राजा के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुई और जहाँ स्नानगृह था, उसी ओर आई। आकर स्नानगृह में प्रवेश किया। प्रवेश करके अन्तःपुर के अन्दर स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त किया। फिर क्या किया, सो कहते हैं-पैरों में उत्तम नूपुर पहने, (कमर में मणिजटित करधनी, वक्षस्थल पर हार, हाथों में कड़े, उंगलियों में अंगूठियाँ धारण की, बाजूबंधों से उसकी भुजाएं स्तब्ध हो गईं,) यावत् आकाश तथा स्फटिक मणि के समान प्रभा वाले वस्त्रों को धारण किया। वस्त्र धारण करके सेचनक नामक गंधहस्ती पर आरूढ़ होकर, अमृतमंथन से उत्पन्न हुए फेन के समूह के समान श्वेत चामर के बालों रूपी बीजने से बिं
८१-तएणं से सेणिए राया हाए कयबलिकम्मे जाव (कयकोउय-मंगल-पायाच्छित्ते अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे ) सस्सिरीए हथिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं चचामराहिं वीइजमाणे धारिणिं देविं पिटुओ अणुगच्छइ।
तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल, प्रायश्चित्त किया, अल्प किन्तु बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को सुशोभित किया। सुसज्जित होकर, श्रेष्ठ गंधहस्ती के स्कंध पर आरूढ होकर, कोरंट वृक्ष के फूलों की माला वाले छत्र को मस्तक पर धारण करके, चार चामरों से बिंजाते हुए धारिणी देवी का अनुगमन किया।
८२-तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रण्णा हत्थिखंधवरगएणं पिट्ठतो पिट्ठतो समणुगम्म-माणमग्गा, हय-गय-रह-जोह-कलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडा महया भड-चडगर-वंद-परिक्खित्ता सव्विढ्डीए सव्वजुईए जाव' दुंदुभिनिग्घोसनादितरवेणं रायगिहे नगरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर जाव(चउम्मुह) महापहपहेसु नागरजणेणं अभिनंदिजमाणा अभिनंदिजमाणा जेणामेव वेभारगिरिपव्वए तेणामेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता वेभारगिरिकडगतडपायमूले आरामेसु य उजाणेसु य, काणणेसु य, वणेसु य, वणसंडेसु य, रुक्खेसु य, गुच्छेसु य, गुम्मेसु य, लयासु य, वल्लीसुय, कंदरासु य, दरीसुय, चुंढीसुय, दहेसुय, कच्छेसु य, न दीसुय, संगमेसु य, विवरएसुय, अच्छमाणी य, पेच्छमाणी य, मजमाणी य, पत्ताणि य, पुष्पाणि य, फलाणि य, पल्लवाणि य, गिण्हमाणी य, माणेमाणी य, अग्घायमाणी य, परिभुंजमाणी य, परिभाएमाणी य, वेभारगिरिपायमूले दोहलंविणेमाणी सव्वओसमंता आहिंडति। तए णं धारिणी देवी विणीतदोहला संपुन्नदोहला संपन्नदोहल्ला जाया यावि होत्था।
श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर बैठे हुए श्रेणिक राजा धारिणी देवी के पीछे-पीछे चले। धारिणीदेवी अश्व, हाथी, रथ और योद्धाओं की चतुरंगी सेना से परिवृत थी। उसके चारों ओर महान् सुभटों का समूह घिरा हुआ था। इस प्रकार सम्पूर्ण समृद्धि के साथ, सम्पूर्ण द्युति के साथ, यावत् दुंदुभि के निर्घोष के साथ राजगृह नगर के शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क और चत्वर आदि में होकर यावत् चतुर्मुख राजमार्ग में होकर निकली। नागरिक लोगों ने पुनः पुनः उसका अभिनन्दन किया। तत्पश्चात् वह जहाँ वैभारगिरि पर्वत था, उसी ओर आई। आकर वैभारगिरि के कटकतट में और तलहटी में, दम्पतियों के क्रीड़ास्थान आरामों में, पुष्प-फल से सम्पन्न उद्यानों
१. प्र. अ. सूत्र ४४