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________________ जीव के चौदह भेद भगवतीसूत्र शतक २५, उद्देशक १ में संसारी जीव के चौदह भेद बताये हैं। एकेन्द्रिय जीव के चार भेद, पञ्चेन्द्रिय जीव के चार भेद और विकलेन्द्रिय जीव के छः भेद हैं । एकेन्द्रिय जीव के सूक्ष्म और बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त, ये चार प्रकार हैं। सूक्ष्मनामकर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर चर्मचक्षु से निहारा नहीं जा सकता वे सूक्ष्म-एकेन्द्रिय जीव हैं। ये सूक्ष्म जीव चतुर्दश रज्जुप्रमाण सम्पूर्ण लोक में परिव्याप्त हैं । लोक में ऐसा कोई भी स्थान नहीं जहाँ पर ये जीव न हों। ये जीव इतने सूक्ष्म हैं कि पर्वत की कठोर चट्टान को चीरकर भी आर-पार हो जाते हैं। किसी के मारने से नहीं मरते। विश्व की कोई भी वस्तु उनका घात-प्रतिघात नहीं कर सकती। साधारण वनस्पति के सूक्ष्म जीवों को सूक्ष्मनिगोद भी कहते हैं। साधारण वनस्पतिकाय का शरीर निगोद कहलाता है । इस विश्व में असंख्य गोलक हैं। एक-एक गोलक में असंख्यात निगोद हैं और एक-एक निगोद में अनन्त जीव हैं। इनका आयुष्य अन्तर्मुहूर्त होता है। बादरनामकर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर चर्मचक्षु से देखा जा सके, वे बादर-एकेन्द्रिय जीव हैं। वादर-एकेन्द्रिय जीव लोक के नियत क्षेत्र में ही प्राप्त होते हैं। पांच स्थावर के भेद में, बादर-एकेन्द्रिय के पांच भेद हैं । बादरवनस्पतिकाय के प्रत्येक और साधारण ये दो भेद हैं । बादर साधारण वनस्पतिकाय निगोद के नाम से भी जानी-पहचानी जाती है। इनमें भी अनन्त जीव होते हैं। इन जीवों में केवल एक इन्द्रिय होती है और वह स्पर्शन इन्द्रिय है। सामान्य रूप से पर्याप्त का अर्थ पूर्ण और अपर्याप्त का अर्थ अपूर्ण है । पर्याप्त और अपर्याप्त ये दोनों शब्द जैनदर्शन के पारिभाषिक शब्द हैं। जन्म के प्रारम्भ में जीवनयापन के लिए आवश्यक पौद्गलिक शक्ति के निर्माण का नाम पर्याप्ति है। आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन ये छह प्रकार की शक्तियाँ हैं । इस शक्ति-विशेष को प्राणी उस समय ग्रहण करता है जब एक स्थूल शरीर को छोड़कर दूसरे स्थूल शरीर को धारण करता है। पांप्तियों का प्रारम्भ एक साथ होता है और पूर्णता क्रमिक रूप से। आहारपर्याप्ति की पूर्णता एक समय में हो जाती है पर शेष पर्याप्तियों के पूर्ण होने में अन्तर्मुहूर्त का समय लगता है। एकेन्द्रिय जीवों में चार पर्याप्तियाँ होती हैं—आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास। विकलेन्द्रिय जीवों के और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के पांच पर्याप्तियाँ होती हैं—आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास और भाषा। संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों के मन अधिक होने से छह पर्याप्तियाँ होती हैं। पहली तीन आहार, शरीर और इन्द्रिय को प्रत्येक जीव पूर्ण करता है। तीनों पर्याप्तियाँ पूर्ण करके ही जीव अगले भव का आयुष्य बांध सकता है। स्वयोग्य पर्याप्ति जो पूर्ण करे वह पर्याप्त है और जो पूर्ण न करे वह अपर्याप्त है। एकेन्द्रिय जीव के स्वयोग्य पर्याप्तियाँ चार हैं । जो एकेन्द्रिय जीव चार पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेता है, वह पर्याप्त कहलाता है और जो पूर्ण नहीं करता वह अपर्याप्त है। पर्याप्त के भी लब्धिपर्याप्त और करणपर्याप्त ये दो भेद हैं। जिस जीव ने स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं किया है पर जो पूर्ण अवश्य करेगा वह लब्धि की दृष्टि से—लब्धिपर्याप्त है और जिस जीव ने स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण कर लिया है वह करण की अपेक्षा से करणपर्याप्त है। करण का अर्थ इन्द्रिय है। जिस जीव ने इन्द्रियपर्याप्त पूर्ण कर ली है वह करणपर्याप्त है। इस तरह जो लब्धिपर्याप्त है वह करणपर्याप्त होकर ही मृत्यु को प्राप्त करता है। जिस जीव ने स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं किया है और न करेगा, वह लब्धपर्याप्तक है । जिस जीव ने स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूरा नहीं किया है [ ८९]
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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