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एगूणसत्तरिउत्तरसयतमाइछन्नउइ
उत्तरसयतमपजंता उद्देसगा
एकसौ उनहत्तर से एकसौ छियानवै उद्देशक पर्यन्त शुक्लपाक्षिक के आश्रित पूर्ववत् अट्ठाईस उद्देशकों का निर्देश
१. सुक्कपक्खियरासीजुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववजंति ? एवं एत्थ वि भवसिद्धियसरिसा अट्ठावीसं उद्देसगा भवंति।
[१ प्र.] भगवन् ! शुक्लपाक्षिक-राशियुग्म-कृतयुग्मराशि-विशिष्ट नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न।
[१ उ.] गौतम ! यहाँ भी भवसिद्धिक उद्देशकों के समान अट्ठाईस उद्देशक होते हैं। २. एवं एए सव्वे वि छण्णउयं उद्देसगसयं भवति रासीजुम्मसत्तं। जाव
सुक्कलेस्ससुक्कपक्खियरासीजुम्मकडजुम्मकलियोगवेमाणिया जाव–जति सकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति जाव अंतं करेंति ?
नो इणढे समढे।
'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणयाहिणं करेति, तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेत्ता वंदति नमंसति, वंदिता नमंसित्ता एवं वयासि—एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते !, अविनहमेतं भंते !, असंदिद्धमेयं भंते !, इच्छियमेयं भंते !, पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छियपडिच्छियमेयं भंते !, सच्चे णं एसमढे जं णं तुब्भे वदह, त्ति कटु 'अपुव्ववयणा' खलु अरहंता भगवंतो' समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वंदिता नमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति।
[२] इस प्रकार यह (४१ वाँ) राशियुग्मशतक इन सबको मिला कर १९६ (एक सौ छियानवे) उद्देशकों का है यावत्
[प्र.] भगवन् ! शुक्ललेश्या वाले शुक्लपाक्षिक राशियुग्म-कृतयुग्म-कल्योजराशिविशिष्ट वैमानिक यावत् यदि सक्रिय हैं तो क्या उस भव को ग्रहण करके सिद्ध हो जाते हैं यावत् सब दुःखों का अन्त कर देते हैं?
[उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं, (यहाँ तक जानना चाहिए।)
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर भगवान् गौतमस्वामी, श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार आदक्षिण (दाहिनी ओर से) प्रदक्षिणा करते हैं, यों तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा १. पाठान्तर—'अपूइवयणा', अर्थ होता है—पवित्र वचन वाले।