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[७३९ पंचमाइअट्ठमउद्देसगपजंता उद्देसगा
पाँचवें से आठवें उद्देशक पर्यन्त कृष्णलेश्यावाले राशियुग्म में कृतयुग्मादिरूप चौवीस दण्डकों में उपपातादि-प्ररूपणा
१. कण्हलेस्सरासीजुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कतो उववजंति ? ० उववातो जहा धूमप्पभाए। सेसं जहा पढमुद्देसए। [१ प्र.] भगवन्! कृष्णलेश्या वाले राशियुग्म-कृतयुग्मराशिरूप नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं?
[१ उ.] इनका उपपात धूमप्रभापृथ्वी (के नैरयिक) के समान है। शेष सब कथन प्रथम उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए।
२. असुरकुमाराणं तहेव, एवं जाव वाणमंतराणं। [२] असुरकुमारों के विषय में भी इसी प्रकार वाणव्यन्तर पर्यन्त कहना चाहिए।
३. मणुस्साण वि जहेव नेरइयाणं। आय [? अ] जसं उवजीवंति। अलेस्सा, अकिरिया, तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति एवं न भाणियव्वं । सेसं जहा पढमुद्देसए।
सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० ॥४१-५॥
[३] मनुष्यों के विषय में भी नैरयिकों के समान कथन करना चाहिए। वे आत्म-(अ)यशपूर्वक जीवन-निर्वाह करते हैं । (इनके विषय में) अलेश्यी, अक्रिय तथा उसी भव में सिद्ध होने का कथन नहीं करना चाहिए। शेष सब प्रथमोद्देशक के समान है।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं', इत्यादि पूर्ववत् ॥ ४१-५॥ ४. कण्हलेस्सतेयोएहि वि एवं चेव उद्देसओ। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० ॥४१-६॥ [४] कृष्णलेश्या वाले राशियुग्म में त्र्योजराशि नैरयिक का उद्देशक भी इसी प्रकार (पूर्ववत्) है ॥४१-६॥ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत्। ५. कण्हलेस्सदावरजुम्मेहिं वि एवं चेव उद्देसओ। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० ॥ ४१-७॥ [५] कृष्णलेश्या वाले द्वापरयुग्मराशि नैरयिक का उद्देशक भी इसी प्रकार (पूर्ववत्) है ॥ ४१-७॥ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। ६. कण्हलेस्सकलिओएहि वि एवं चेव उद्देसओ। परिमाणं संवेहो य जहा ओहिएसु उद्देसएसु।