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है। किसी लोहे की वस्तु में जंग लग जाता है। वहाँ पर जंग नामक कोई नया द्रव्य उत्पन्न नहीं हुआ, पर धातु की ऊपरी सतह पानी और वायुमण्डल के ऑक्सीजन के संयोग से लोहे के ऑक्सीहाईड्रेट के रूप में परिणत हो गई। भौतिकवाद पदार्थों के गुणात्मक अन्तर को परिमाणात्मक अन्तर में परिवर्तित कर देता है। शक्ति परिमाण में परिवर्तन नहीं किन्तु गुण की दृष्टि से परिवर्तनशील है। प्रकाश, तापमान, चुम्बकीय आकर्षण आदि का ह्रास नहीं होता, अपितु वे एक-दूसरे में परिवर्तित हो जाते हैं। उत्पाद, ध्रौव्य और व्यय द्रव्यों का यह विविध लक्षण प्रतिक्षण घटित होता रहता है। इस शब्दावली में और जिसे "द्रव्य का नाश होना समझा जाता है वह उसका रूपान्तर में परिणमनमात्र है" इन शब्दों में कोई अन्तर नहीं है। वस्तु की दृष्टि से इस विश्व में जितने द्रव्य हैं, उतने ही द्रव्य सदा अवस्थित रहते हैं। सापेक्षदृष्टि से ही जन्म और मरण है। नवीन पर्याय का उत्पाद जन्म है और पूर्व पर्याय का विनाश मृत्यु है।
सांख्यदर्शन ने पुरुष को नित्य और प्रकृति को परिणामीनित्य मानकर नित्यानित्यत्ववाद की संस्थापना की है। नैयायिक और वैशेषिक परमाणु, आत्मा प्रभृति को नित्य मानते हैं और घट, पट, प्रभृति को अनित्य मानते हैं। इस तरह समूह की दृष्टि से वे परिणामित्व एवं नित्यत्ववाद को स्वीकार करते हैं। पर जैनदर्शन की भाँति द्रव्य मात्र को परिणामी नित्य नहीं मानते। यह भी संत्य तथ्य है कि महर्षि पतञ्जलि और आचार्य कुमारिल भट्ट, पार्थसार प्रभृति मनीषियों ने परिणामीनित्यत्ववाद को स्पष्ट सिद्धान्त के रूप में मान्यता नहीं दी है, तथापि परिणामीनित्यत्ववाद का प्रकारान्तर' से पूर्ण समर्थन किया है।
द्रव्य शब्द अनेकार्थक है। सत् तत्त्व और पदार्थपरक अर्थ पर हम कुछ चिन्तन कर चुके हैं। सामान्य के लिए भी द्रव्य शब्द व्यवहत हुआ है और विशेष के लिए पर्याय शब्द का प्रयोग हुआ है। सामान्य भी तिर्यक्सामान्य और ऊध्वंतासामान्य के रूप में दो प्रकार का है। एक ही काल में स्थित अनेक देशों में रहने वाले अनेक पदार्थों में समानता का होना तिर्यक्सामान्य है । जब कालकृत विविध अवस्थाओं में किसी विशेष द्रव्य का एकत्व या अन्वय (समानता) विवक्षित हो या एक विशेष पदार्थ की अनेक अवस्थाओं की एकता या ध्रौव्य अपेक्षित हो, वह एकत्वसूचक अंश ऊर्ध्वतासामान्य है। जीव के संसारी और मुक्त इन दो भेदों में रहने वाला जीवत्व या संसारी के एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक ५ भेदों में रहा हुआ संसारी जीवत्व आदि तिर्यक् सामान्य हैं।
द्रव्यं नित्यमाकृतिरनित्या । सुवर्ण कदाचिदाकृत्या युक्तः पिण्डो भवति पिण्डाकृतिमुपमृद्य रु चकाः क्रियन्ते। रुचकाकृतिमुपमृद्य कटका: क्रियन्ते. कटकाकृतिमुपमृद्य स्वस्तिका:क्रियन्ते। पुनरावृतः सुवर्ण पिण्डः। ------ आकृतिरन्या चान्या च भवति. द्रव्यं पुनस्तदेव। आकृत्युपमर्दैन द्रव्यमेवावशिष्यते। -पातञ्जल योगदर्शन वर्धमानकभंगे च रुचकः क्रियते यदा। तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्राप्तिश्चाप्युत्तरार्थिनः ॥१॥ हेमार्थिनस्तु माध्यस्थं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम्। नोत्पादस्थितिभंगा नामभावे स्यान्मतित्रयम्॥२॥ न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् । स्थित्वा विना न माध्यस्थं. तेन सामान्यनित्यता ॥३॥
-कुमारिल्ल भट्टः-मीमांसा श्लोकवार्तिक. पृष्ठ ६१९ [८३]