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________________ चालीसवाँ शतक : उद्देशक-१] जीवों के समान है। वे विरत, अविरत या विरताविरत होते हैं। वे सक्रिय (क्रिया वाले) होते हैं, अक्रिय (क्रियारहित) नहीं। २. ते णं भंते ! जीवा किं सत्तविहबंधगा, अट्ठविहबंधगा, छव्विहबंधगा, एगविहबंधगा ? गोयमा ! सत्तविहबंधगा वा जाव एगविहबंधगा वा। [२ प्र.] भगवन् ! वे जीव सप्तविध-(कर्म-) बन्धक, अष्टविधकर्मबन्धक, षड्विधकर्मबन्धक या एकविधकर्मबन्धक होते हैं ? [२ उ.] गौतम ! वे सप्तविधकर्मबन्धक भी होते हैं, यावत् एकविधकर्मबन्धक भी होते हैं। ३. ते णं भंते ! जीवा किं आहारसण्णोवउत्ता जाव परिग्गहसन्नोवउत्ता, नोसण्णोवउत्ता? गोयमा ! आहारसन्नोवउत्ता वा जाव नोसन्नोवउत्ता वा। [३ प्र.] भगवन् ! वे जीव क्या आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिसंग्रहसंज्ञोपयुक्त होते हैं अथवा वे नोसंज्ञोपयुक्त होते हैं ? . [३ उ.] गौतम ! आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् नोसंज्ञोपयुक्त होते हैं। ४. सव्वत्थ पुच्छा भाणियव्वा। कोहकसाई वा जाव लोभकसाई वा, अकसायी वा। इत्थिवेयगा वा, पुरिसवेयगा वा, नपुंसगवेयगा वा, अवेयगा वा। इत्थिवेयबंधगा वा, पुरिसवेयबंधगा वा, नपुंसगवेयबंधगा वा, अबंधगा वा। सण्णी, नो असण्णी। सइंदिया, नो अणिंदिया। संचिट्ठणा जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहत्तं सातिरेगं। आहारो तहेव जाव नियमं छद्दिसिं। ठिती जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। छ समुग्धाता आदिल्लगा। मारणंतियसमुग्घातेणं समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति। उव्वदृणा जहेव उववातो, न कत्थइ पडिसेहो जाव अणुत्तरविमाण त्ति। [४] इसी प्रकार सर्वत्र प्रश्नोत्तर की योजना करनी चाहिए। (यथा—) वे क्रोधकषायी यावत् लोभकषायी होते हैं। वे स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक, नपुंसकवेदक या अवेदक होते हैं। वे स्त्रीवेद-बन्धक, पुरुषवेद-बन्धक, नपुंसकवेद-बन्धक या अबन्धक होते हैं। वे संज्ञी होते हैं, असंज्ञी नहीं। इनका संचिट्ठणाकाल (संस्थितिकाल) जघन्य एक समय और उत्कृष्ट सातिरेक सागरोपम-शतपृथक्त्व होता है। इनका आहार पूर्ववत् यावत् नियम से छह दिशा का होता है। इनकी स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। इनमें प्रथम के छह समुद्घात पाये जाते हैं । ये मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत भी मरते हैं। इनकी उद्वर्त्तना का कथन उपपात के समान है। किसी भी विषय में निषेध अनुत्तरविमान तक नहीं है। ५. अह भंते ! सव्वपाणा०? जाव अणंतखुत्तो। [५ प्र.] भगवन् ! सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व यहाँ, पहले (इससे पूर्व) उत्पन्न हुए हैं ? [५ उ.] गौतम ! वे इससे पूर्व अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं।
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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