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________________ है। बहुत जनों के दुःख के लिए होता है । वह देवों के लिए भी अलाभकर और हानिकारक है, जैसे मंखलिगोशालक। दूसरे स्थान पर उन्होंने यह भी बताया कि श्रमण धर्मों में सबसे निकृष्ट और जघन्य मान्यता गोशालक की है, जैसे कि सभी प्रकार के वस्त्रों में केशकम्बल'। यह कम्बल शीत काल में शीतल, ग्रीष्मकाल में उष्ण तथा दुर्वर्ण, दुर्गन्ध, दुःस्पर्श वाला होता है। वैसे ही जीवनव्यवहार में निरुपयोगी गोशालक का नियतिवाद है। इन अवतरणों से यह स्पष्ट है कि गोशालक और उसके मत के प्रति बुद्ध का विद्रोह स्पष्ट था। सूत्रकताङ्ग में आर्द्रकुमार का प्रकरण आया है। उस प्रकरण में आर्द्रकुमार ने आजीवक भिक्षुओं के अब्रह्मसेवन का उल्लेख किया है। इसी प्रकार मज्झिमनिकाय आदि में भी आजीवकों के अब्रह्मसेवन का वर्णन मिलता है। मज्झिमनिकाय में निर्ग्रन्थपरम्परा को ब्रह्मचर्यवास में और आजीवकपरम्परा को अब्रह्मचर्यवास में लिया है। इतिहासवेत्ता डॉ. सत्यकेतु के अभिमतानुसार श्रमण भगवान् महावीर और गोशालक में तीन बातों का मतभेद था। उन तीनों बातों में से एक स्त्रीसहवास भी है। इन सब अवतरणों से यह स्पष्ट है कि गोशालक की मान्यता में स्त्रीसहवास पर प्रतिबन्ध नहीं था। तथापि उसका मत इतना अधिक क्यों व्यापक बना, इस सम्बन्ध में हम पूर्व ही उल्लेख कर चुके हैं। शोधार्थियों को तटस्थ दृष्टि से चिन्तन करना चाहिये और प्रमाणपुरस्सर चिन्तन देना चाहिए, जिससे सत्य तथ्य समुद्घाटित हो सके। इस प्रकार भगवतीसूत्र में विविध व्यक्तियों के चरित्र आए हैं, जो ज्ञातव्य हैं और जिनसे अन्य अनेक दार्शनिक गुत्थियों को भी सुलझाया गया है। हम अब गवतीसूत्र में आए हुए सैद्धान्तिक विषयों पर चिन्तन करेंगे, जो जैनदर्शन का हृदय है। भगवतीसूत्र शतक २५, उद्देशक २ में द्रव्य-विषयक चिन्तन है। यहाँ हमें सर्वप्रथम यह चिन्तन करना है कि द्रव्य किसे कहते हैं ? सूत्रकृताङ्ग चूर्णि में आचार्य जिनदासगणि महत्तर ने द्रव्य की परिभाषा करते हुए लिखा है—जो विशेष-पर्यायों को प्राप्त करता है वह द्रव्य है। अन्य जैनाचार्यों ने लिखा है—जो पर्यायों के लय और विलय से जाना जाता है वह द्रव्य है। दूसरे आचार्य ने लिखा है जो भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त हुआ, हो रहा है और होगा वह द्रव्य है। यह विभिन्न अवस्थाओं का उत्पाद और विनाश होने पर भी सदा ध्रुव रहता है। क्योंकि ध्रौव्य के अभाव में पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती अवस्थाओं का सम्बन्ध नहीं हो सकता, अतः पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती दोनों अवस्थाओं में जो व्याप्त रहता है वह द्रव्य है। जो द्रव्य है वह सत् है। आचार्य उमास्वाति ने सत् १. अंगुत्तरनिकाय १-१८-४५ यह कम्बल मानव के केशों से निर्मित होता था ऐसा टीका साहित्य में उल्लेख है। The Book of Gradual Saying, Vol. I, Page 286 मज्झिमनिकाय भाग १, पृष्ठ ५१४ :Encyclopaedia of Religion and Ethics, Dr. Hocrule P.261. ५. मझिमनिकाय सन्दक सुत्त २-३-६ ६. भारतीय संस्कृति और उसका इतिहास, पृष्ठ १६३ ७. द्रवति-गच्छति तांस्तान् पर्यायविशेषानितियद्रव्यम् (सू. चू. १, पृष्ठ ५) द्रवति-स्वपर्यायान प्राप्नोति क्षरति च.द्रयते गम्यते तैस्तैः पायैरिति द्रव्यम्। [८१]
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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