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पैंतीसवां शतक-२ : उद्देशक १-११]
[६९५ जहा पढमसमयउद्देसओ, नवरं
[७ प्र.] भगवन् ! प्रथमसमय-कृष्णलेश्यी कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न।
[७ उ.] गौतम ! इसका समग्र कथन प्रथमसमयउद्देशक (अवान्तर शतक १ उ. २) के समान जानना। विशेष यह है
८. ते णं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा ? हंता, कण्हलेस्सा। सेसं तहेव। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० ॥ ३५।२।२॥ [८ प्र.] भगवन् ! वे जीव कृष्णलेश्या वाले हैं ? [८ उ.] हाँ, गौतम ! वे कृष्णलेश्या वाले हैं। शेष समग्र कथन पूर्ववत् जानना चाहिए।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं॥३५॥२॥२॥
९. एवं जहा ओहियसते एक्कारस उद्देसगा भणिया तहा कण्हलेस्ससए वि एक्कारस उद्देसगा भाणियव्वा। पढमो, ततिओ, पंचमो य सरिसगमा। सेसा अट्ठ वि सरिसगमा, नवरं० चउत्थ-अट्ठमदसमेसु उववातो नत्थि देवस्स। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० ॥३५ । २।३-११॥
॥पंचतीसइमे सते : बितियं एगिदियमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ ३५-२॥ [९] औधिकशतक के ग्यारह उद्देशकों के समान कृष्णलेश्याविशिष्ट (एकेन्द्रिय) शतक के भी ग्यारह उद्देशक कहने चाहिए। प्रथम, तृतीय और पंचम उद्देशक के पाठ एक समान हैं। शेष आठ उद्देशकों के पाठ सदृश हैं। किन्तु इनमें से चौथे, (छठे), आठवें और दसवें उद्देशक में देवों की उत्पत्ति का कथन नहीं करना चाहिए।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतम्'वामी यावत् विचरते हैं ॥ ३५ ॥ २१३-११॥
॥ द्वितीय एकेन्द्रियमहायुग्मशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक तक समाप्त॥ ॥ पैंतीसवां शतक : द्वितीय एकेन्द्रियमहायुग्मशतक समाप्त॥
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१. यहाँ भी 'चउत्थ' के पश्चात् 'छट्ठ' पाठ अधिक मिलता है। -सं.