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________________ ६७६] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [४ उ.] गौतम ! पूर्ववत् जानना। इस अभिलाप से औधिक उद्देशक के अनुसार लोक के चरमान्त तक यहाँ सर्वत्र कृष्णलेश्यी-भवसिद्धिक में उपपात कहना चाहिए। ५. कहि णं भंते ! परंपरोववन्नकण्हलेस्सभवसिद्धियपजत्तबायरपुढविकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता? एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिओ उद्देसओ जाव तुल्लट्ठितीय त्ति। [५ प्र.] भगवन् ! परम्परोपवन्नक कृष्णलेश्यीभवसिद्धिक पर्याप्त बादरपृथ्वीकायिक जीवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? . [५ उ.] गौतम ! इसी प्रकार इस अभिलाप से औधिक उद्देशक यावत् तुल्यस्थिति-पर्यन्त जानना चाहिए। ६. एवं एएणं अभिलावेणं कण्हलेस्सभवसिद्धियएगिदिएहि वि तहेव। . ॥एक्कारंसउद्देसगसंजुत्तं छटुं सतं समत्तं ॥३४-६॥ [६] इसी प्रकार इसी अभिलाप से कृष्णलेश्यी-भवसिद्धिक एकेन्द्रियों के सम्बन्ध में भी (ग्यारह उद्देशक सहित छठा शतक) कहना चाहिए। ॥चौतीसवाँ शतक : छठा अवान्तरशतक समाप्त॥ ***
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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