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अतिमुक्तकुमार भगवान् महावीर के शासन में सबसे लघु श्रमण थे। भगवान् महावीर ने अतिमुक्तकुमार के आयुष्य को नहीं पर उनमें रही हुई तेजस्विता निहारा था, बालक में भी सहज प्रतिभा रही हुई होती है । वह भी अपना उत्कर्ष कर सकता है यह प्रस्तुत कथानक से स्पष्ट । प्रस्तुत आगम में बालमुनि अतिमुक्तकुमार ने पानी में पात्र तिराया यह भी उल्लेख है जो उनके सरल जीवन का प्रमाण है। नौका के माध्यम से वे उस समय अपनी जीवन-नौका को तिराने की कमनीय कल्पना किए हुए थे।
आत्मविकास का बाधक : मोह
भगवतीसूत्र शतक १४, उद्देशक ७ में गणधर गौतम का एक सुनहरा प्रसंग है। गणधर गौतम अपने सामने प्रव्रजित मुनियों को मुक्त होते और केवलज्ञान प्राप्त करते हुए देखकर विचार में पड़ गए कि मैं अभी तक मुक्त क्यों नहीं बना हूँ ! मुझे केवलज्ञान — केवलदर्शन प्राप्त क्यों नहीं हुआ है ! जब उनका विचार चिन्ता में परिवर्तित हो गया तब भगवान् महावीर ने रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा — वत्स ! तेरा जो स्नेह मेरे प्रति है वही इसमें बाधक हो रहा है । प्रसंग में यह भी बताया है कि मेरे साथ तुम्हारा सम्बन्ध आज का नहीं बहुत है। प्राचीन टीकाकारों ने बताया, भगवान् महावीर का जीव जब मरीचि के रूप में था तब गौतम का जीव उनका शिष्य कपिल था । भगवान् महावीर का जीव जब त्रिपृष्ट वासुदेव था तब गौतम का जीव उनका सारथी था । इस प्रकार भगवान् ऋषभदेव के युग से लेकर महावीर युग तक गणधर गौतम के जीवन का महावीर के साथ सम्बन्ध रहा है। प्रस्तुत प्रसंग से यह बात स्पष्ट है कि जरा-सा मोह भी मोहन (भगवान्) बनने में अन्तरायभूत होता है ।
भगवतीसूत्र शतक ७, उद्देशक ९ में भगवान् महावीर के युग में हुए महाशिलाकंटक संग्राम का उल्लेख है। युद्ध का लोमहर्षक वर्णन पढ़कर लगता है कि आधुनिक वैज्ञानिक साधनों की तरह उस युग में भी तीक्ष्ण और संहारकारी साधन थे। इस युद्ध, जिसे जैनपरम्परा में महाशिलाकंटक युद्ध कहा है, का बौद्ध साहित्य के दीघनिकाय की महापरिनिव्वाणसुत्त तथा उसकी अट्ठकथा में बज्जीविजय नाम से वर्णन मिलता है। यह सत्य है कि जैन और बौद्ध परम्परा में युद्ध के कारण युद्ध की प्रक्रिया और युद्ध की निष्पत्ति आदि भिन्न-भिन्न मिलती है तथापि दोनों का सार यही है कि वैशाली, जो गणतन्त्र की राजधानी थी, उस पर राजतन्त्र की राजधानी मगध की ऐतिहासिक विजय हुई थी। जैनपरम्परा में चेटक सम्राट् लिच्छिवियों के नायक हैं तो बौद्धपरम्परा केवल वज्जीसंघ (लिच्छवी संघ) को प्रस्तुत करती है । ऐतिहासिक दृष्टि से राजा कूणिक की ३३ करोड़ सेना और सम्राट् चेटक की ५९ करोड़ सेना आदि का जो वर्णन है वह चिन्तनीय है। इस संख्या के सम्बन्ध में मनीषीगण अपना मौलिक चिन्तन और समाधान प्रस्तुत करें, यह अपेक्षित है। मैंने प्रस्तुत प्रसंग को बहुत ही विस्तार के साथ धर्मकथानुप्रयोग की प्रस्तावना में लिखा है। जिज्ञासु पाठक उसका अवलोकन करें। वैदिक परम्परा में देवासुरसंग्राम का जैसा उल्लेख और वर्णन है, वह वर्णन प्रस्तुत आगम के महाशिलाकंटक और रथमूसल संग्राम को पढ़ते हुए स्मरण हो आता है।
देवानन्दा ब्राह्मणी
भगवतीसूत्र शतक ५, उद्देशक ३३ में देवानन्दा ब्राह्मणी का उल्लेख है। भगवान् एक बार ब्राह्मणकुण्ड ग्राम में पधारे। वहाँ ऋषभदत्त अपनी पत्नी देवानन्दा के साथ दर्शन के लिए पहुँचा। देवानन्दा महावीर को देखकर रोमाञ्चित हो जाती है। उसका वक्ष उभरने लगता है एवं आँखों से हर्ष के आँसू उमड़ने लगते हैं। उसकी
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