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________________ तीसवां शतक : उद्देशक १] [५९१ आयुष्य बांधते हैं; उसका आशय यह है कि जो नैरयिक और देव क्रियावादी हैं, वे मनुष्य का आयुष्य बांधते हैं तथा जो मनुष्य और पंचेन्द्रियतिर्यञ्च क्रियावादी हैं, वे देव का आयुष्य बांधते हैं। कृष्णलेश्यी क्रियावादी जीव का आयुष्यबन्ध—इनके विषय में जो यह कहा गया है कि कृष्णलेश्यी क्रियावादी जीव नैरयिक, तिर्यञ्च और देव का आयुष्य बन्ध नहीं करते; किन्तु मनुष्य का आयुष्य बांधते हैं, वह कथन नैरयिक और असुरकुमारादि की अपेक्षा से समझना चाहिए। क्योंकि जो कृष्णलेश्यी सम्यग्दृष्टि मनुष्य और तिर्यञ्च हैं, वे तो मनुष्य का आयुष्य बांधते ही नहीं हैं, वे केवल वैमानिक देव का ही आयुष्य बांधते हैं। अलेश्यी आदि जीव आयुष्य ही नहीं बांधते—अलेश्यी, अकषायी, अयोगी और केवलज्ञानी आदि जीव जन्म-मरण से मुक्त, सिद्ध होते हैं। अत: वे किसी प्रकार का आयुष्य नहीं बांधते हैं। सम्यगमिथ्यादृष्टि जीव का कथन अलेश्यी के समान कहा गया है, उसका आशय यह है कि अलेश्यी जीव, जो सिद्ध हैं, वे तो कृतकृत्य होने से एवं कर्मों का समूल नाश करने के कारण आयुष्यबन्ध नहीं करते तथा अयोगी जीव भी उसी भव में मुक्त हो जाते हैं, इसलिए वे भी कोई आयुष्य नहीं बांधते । किन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि-अवस्था में तथाविध स्वभाव-विशेष से किसी प्रकार का आयुष्यबन्ध नहीं करते। चौवीस दण्डकवर्ती क्रियावादी आदि जीवों की ग्यारह स्थानों में आयुष्यबन्ध-प्ररूपणा ६५. किरियावाई णं भंते ! नेरइया किं नेरइयाउयं० पुच्छा। गोयमा ! नेरइयाउयं०, नो तिरिक्ख०, मणुस्साउयं पकरेंति, नो देवाउयं पक़रेंति। [६५ प्र.] भगवन् ! क्या क्रियावादी नैरयिक जीव नैरयिकायुष्क बांधते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न। [६५ उ.] गौतम ! वे नारक, तिर्यञ्च व देव का आयुष्य नहीं बांधते, किन्तु मनुष्य का आयुष्य बांधते हैं। ६६. अकिरियावाई णं भंते ! नेरइया० पुच्छा। गोयमा ! नो नेरतियाउयं, तिरिक्खजोणियाउयं पि पकरेंति, मणुस्साउयं पि पकरेंति, नो देवाउयं पकरेंति। [६६ प्र.] भगवन् ! अक्रियावादी नैरयिक जीव नैरयिक का आयुष्य बांधते हैं । इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न। [६६ उ.] गौतम ! वे नैरयिक और देव का आयुष्य नहीं बांधते, किन्तु तिर्यञ्च और मनुष्य का आयुष्य बांधते हैं। ६७. एवं अन्नाणियवादी वि, वेणइयवादी वि। [६७] इसी प्रकार अज्ञानवादी और विनयवादी नैरयिक के आयुष्यबन्ध के विषय में समझना चाहिए। १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९४५ (ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. ७, पृ. ३६१६
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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