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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ८. वेदणिजे सव्वत्थ वि पढम-बितिया भंगा जाव वेमाणियाणं, नवरं मणुस्सेसु अलेस्से केवली अजोगी य नत्थि।
[८] वेदनीयकर्म के विषय में सभी स्थानों में वैमानिक तक प्रथम और द्वितीय भंग कहना चाहिए। विशेष यह है कि अचरम मनुष्यों में अलेश्यी, केवलज्ञानी और अयोगी नहीं होते।
९. अचरिमे णं भंते ! नेरइए मोहणिजे कम्मं किं बंधी० पुच्छा। गोयमां ! जहेव पावं तहेव निरवसेसं जाव वेमाणिए। [९ प्र.] भगवन् ! अचरम नैरयिक ने क्या मोहनीय कर्म बांधा था ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ।
[९ उ.] गौतम ! जिस प्रकार पापकर्मबन्ध के विषय में कहा, उसी प्रकार यहाँ भी अचरम नैरयिक के विषय में पापकर्म-सम्बन्धी समस्त कथन वैमानिक तक कहना चाहिए।
. १०. अचरिमे णं भंते ! नेरतिए आउयं कम्मं किं बंधी० पुच्छा। गोयमा ! पढम-ततिया भंगा। [१० प्र.] भगवन् ! क्या अचरम नैरयिक ने आयुष्य कर्म बांधा था? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न । [१० उ.] गौतम ! प्रथम और तृतीय भंग जानना चाहिए। ११. एवं सव्वपएसु वि नेरइयाणं पढम-ततिया भंगा, नवरं सम्मामिच्छत्ते तइयो भंगो।।
[११] इसी प्रकार नैरयिकों के बहुवचन-सम्बन्धी समस्त पदों में पहला और तीसरा भंग कहना चाहिए। किन्तु सम्यग्मिथ्यात्व में केवल तीसरा भंग कहना चाहिए।
१२. एवं जाव थणियकुमाराणं। [१२] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए।
१३. पुथविकाइय-आउकाइय-वणस्सइकाइयाणं तेउलेसाए ततियो भंगो। सेसपएसु सव्वत्थ पढम-ततिया भंगा।
[१३] पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, वनस्पतिकायिक और तेजोलेश्या, इन सबमें तृतीय भंग होता है। शेष पदों में सर्वत्र प्रथम और तृतीय भंग कहना चाहिए।
१४. तेउकाइय-वाउकाइयाणं सव्वत्थ पढम-ततिया भंगा। [१४] तेजस्कायिक और वायुकायिक के सभी स्थानों में प्रथम और तृतीय भंग कहना चाहिए।
१५. बेइंदिए-तेइंदिए-चतुरिदियाणं एवं चेव, नवरं सम्मत्ते ओहिनाणे आभिणिबोहियनाणे सुयनाणे, एएसु चउसु वि ठाणेसु ततियो भंगो।