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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
ईश्वर या कोई अन्य व्यक्ति किसी के आयुष्य को बढ़ाने-घटाने में समर्थ है, अल्पायु को अधिक आयु दी जा सकती हैं, अथवा आयुष्य की अदलाबदली हो सकती है, परन्तु जैनशास्त्रों में प्रतिपादित इस अकाट्य सिद्धान्त से इस बात का खण्डन हो जाता है।
इन चारों शतकों से यह तथ्य भी प्रकट होता है कि अगर किसी जीव के कर्म निकाचितरूप से न बंधे हों और पापकर्म या अशुभकर्म का वेदन समभाव से करे तो वह स्वयं के अशुभ या पापकर्म को शुभ या. पुण्यकर्म में परिणत कर सकता है । समिति, गुप्ति, व्रताचरण, तपश्चर्या आदि द्वारा शुभ या अशुभ कर्मों को क्षीण कर सकता है । चतुर्भंगी बताने का एक उद्देश्य यह भी प्रतीत होता है कि कोई सम्यग्दृष्टि साधक चाहे तो तृतीय या चतुर्थ भंग का (मोक्ष का) अधिकारी भी हो सकता है तथा अशुभ या पापकर्म करे तो नरकगति या तिर्यंचगति का पथिक भी हो सकता है।
अट्ठाईसवें शतक के प्रथम उद्देशक के वर्णन से यह भी फलित होता है कि जीव ने पापकर्म का समर्जन या आचरण एक गति में अज्ञानवश कर लिया हो तो दूसरी शुभगति में उत्पन्न होकर और विवेकपूर्वक कृत पापाचरण की शुद्धि करना चाहे तो कर सकता है।
इन चारों शतकों की मुख्य प्रेरणा का स्वर यही है कि जीव को अपनी आत्मा की विशुद्धि एवं पवित्रता के लिए कर्मबन्ध, चाहे किसी भी रूप में हो, स्वयमेव समभाव से भोग कर छुटकारा पा लेना चाहिये। ग्यारह स्थानों में से कई स्थान, ( यथा— लेश्या, योग, अज्ञान, कषाय, वेद, संज्ञा मिथ्यादृष्टि आदि ) ऐसे हैं जो कर्मबन्ध के साक्षात् या परम्परा से कारण हैं, उन पर मनन- आलोचना करके उनको त्यागने का प्रयत्न करना चाहिये और अलेश्यत्व, अकषायत्व, अयोगित्व, अवेदकत्व, असंज्ञित्व आदि प्राप्त करके आत्मा को निज - शुद्धस्वरूप में रमण कराने का प्रयत्न करना चाहिये ।
कुल मिलाकर ये चारों शतक एक दूसरे से सापेक्ष हैं, आत्मशुद्धि के प्रेरक हैं, जीवन की उच्चता— आध्यात्मिक उच्चता को प्राप्त कराने में मार्गदर्शक हैं ।
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