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________________ ५२२] छव्वीसइमाइ-एगूणतीसइमाइं चउ-सयाई छव्वीसवें से उनतीसवें तक चार शतक [प्राथमिक] * भगवतीसूत्र के छव्वीसवें से लेकर उनतीसवें तक चार शतकों का प्रतिपाद्य विषय प्रायः समान होने से चारों का प्राथमिक एक साथ दिया जा रहा है। इन शतकों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं१-बंधिसयं (छव्वीसवां शतक), २-करिंसुसयं (सत्ताईसवां शतक), ३-कम्म-समजण-सयं (अट्ठाईसवाँ शतक), ४-कम्म-पट्ठवण-सयं (उनतीसवाँ शतक)। * इनके प्रतिपाद्य विषय ही इनके अर्थ को सूचित करते हैं—(१) बंधीशतक में त्रैकालिक पापकर्मबन्ध और ज्ञानावरणीयादि अष्टकर्मबन्ध का, जीव आदि ग्यारह स्थानों (द्वारों) के माध्यम से ग्यारह उद्देशकों में प्ररूपण है। (२) 'करिंसुशतक' में भी त्रैकालिक पापकर्म (क्रिया), करण और ज्ञानावरणीयादि कर्मकरण का पूर्वोक्त ग्यारह स्थानों के माध्यम से ग्यारह उद्देशकों में निरूपण है। (३) कर्मसमर्जनशतक में त्रैकालिक पापकर्म, अष्टविध कर्मों के समर्जन एवं समाचरण का पूर्वोक्त ग्यारह स्थानों के माध्यम से ग्यारह उद्देशकों में निरूपण है। (४) कर्मप्रस्थापनशतक में जीव और चौवीस दण्डकों में सम-विषमकाल की अपेक्षा पापकर्म एवं अष्टविधकर्मवेदन के प्रारम्भ और अन्त का ग्यारह उद्देशकों में निरूपण है। * चारों शतकों में प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा भंगों के रूप में हुई है। * ग्यारह स्थान (द्वार) इस प्रकार हैं-(१) जीव, (२) लेश्या, (३) पाक्षिक (शुक्लपाक्षिक और कृष्णपाक्षिक), (४) दृष्टि, (५) अज्ञान, (६) ज्ञान, (७) संज्ञा, (८) वेद, (९) कषाय, (१०) योग और (११) उपयोग। प्रत्येक शतक में ये ग्यारह उद्देशक हैं। * छब्बीसवें शतक के प्रथम उद्देशक में सामान्य जीव तथा लेश्यादि-विशिष्ट जीव के कालिक पापकर्मबन्ध का तथा सामान्य नारक आदि तथा लेश्यादि-विशिष्ट नारक आदि का अष्टविध कर्मवन्ध का चार भंगों के रूप में निरूपण है। * दूसरे उद्देशक में अनन्तरोपपन्नक नैरयिक आदि में पूर्ववत् ग्यारह स्थानों के माध्यम से पापकर्मबन्ध व कर्मबन्ध की चतुर्भंगी को प्ररूपणा है।
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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