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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र रागद्वेष से व्याकुल अज्ञानी जीव के उपर्युक्त चारों प्रकार का रौद्रध्यान होता है। यह कुध्यान को बढ़ाने वाला और प्रायः नरकगति में ले जाने वाला होता है ।
रौद्रध्यान के चार लक्षण हैं। ओसन्नदोष — हिंसा आदि से निवृत्त न होने के कारण रौद्रध्यानी बहुधा हिंसादि में से किसी एक में प्रवृत्ति करता है । बहुलदोष — रौद्र ध्यानी हिंसादि सभी दोषों में प्रवृत्त होता है। अज्ञानदोष — अज्ञानवश या कुशास्त्रों के संस्कारवश नरकादि के कारणभूत अधर्मस्वरूप हिंसादि में धर्मबुद्धि से उन्नति के लिए प्रवृत्ति करना 'अज्ञानदोष' है । अथवा 'नानादोष' – हिंसादि के विविध उपायों में अनेक बार प्रवृत्तिं करना ‘नानादोष' है । आमरणान्तदोष — मरणपर्यन्त हिंसादि क्रूर कार्यों में अनुताप (पश्चात्ताप) न होना तथा हिंसादि में प्रवृत्ति करते रहना आमरणान्तदोष है। जैसे—कालसौकरिक (कसाई) । जो रौद्रध्यानी कठोर एवं संक्लिष्ट परिणाम वाला होता है, वह दूसरे के दुःख, कष्ट एवं संकट में तथा पापकार्य करने में प्रसन्न होता है, उसे इहलोक-परलोक का भय नहीं होता, उसके मन में दयाभाव बिलकुल नहीं होता। कुकृत्य करने का पछतावा भी नहीं होता ।
धर्म और शुक्ल ध्यान को चतुष्प्रत्यवतार कहा गया है, जिसका अर्थ है – भेद, लक्षण आलम्बन और अनुप्रेक्षा, इन चार लक्षणों से जिसका विचार किया जाए।
धर्मध्यान —— श्रुत- चारित्ररूप धर्मसहित ध्यान धर्मध्यान है अथवा धर्म अर्थात् जिनाज्ञायुक्त पदार्थ के स्वरूपपर्यालोचन में मन को एकाग्र करना धर्मध्यान है या सूत्रार्थ की साधना करने, महाव्रतादि को ग्रहण करने, बन्ध-मोक्ष, गति - आगति आदि हेतुओं के विचार करने में चित्त को एकाग्र करना तथा पंचेन्द्रियविषयों से निवृत्ति एवं प्राणियों के प्रति अनुकम्पाभाव आदि धर्मों में मन को एकाग्र करना धर्मध्यान है । इसके ४ भेद हैं।
आज्ञाविचय—जिनाज्ञा को सत्य मानकर उसके प्रति पूर्ण श्रद्धा रखना, जिनोक्त शास्त्रों में प्ररूपित तत्त्वों का चिन्तन-मनन करना, वीतराग- प्रज्ञप्त कोई तत्त्व समझ में न आए तो भी यह विचार करे कि चाहे मुझे मंदबुद्धिवश समझ में न आए, किन्तु वीतराग सर्वज्ञ कथित होने से यह वचन सर्वथा सत्य ही है, इसके असत्य होने का कोई कारण नहीं है। इस प्रकार वीतराग वचनों का सतत चिन्तन-मनन करना, संदेहरहित होकर मन को उनमें एकाग्र करना आज्ञाविचय नामक धर्मध्यान है।
अपायविचय—— राग-द्वेष, कषाय, विषयासक्ति, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, अशुभयोग और क्रियाओं आदि से होने वाली इहलौकिक-पारलौकिक हानियों तथा कुपरिणामों का विचार एवं चिन्तन करना अपायविचय है । इन अपायों—दोषों से होने वाले दुष्परिणामों का चिन्तन करने वाला जीव इनसे अपनी आत्मा की रक्षा करने में तत्पर रहता है, इनसे दूर रह कर स्वपरकल्याण की साधना करता है ।
विपाकविचय-शुद्ध आत्मा ज्ञान-दर्शन और सुखादिरूप है, किन्तु कर्मों के कारण आत्मा के ये निजगुण दबे हुए हैं। कर्मों के वशीभूत होकर जीव चारों गतियों में भ्रमण करता है। सुख-दु:ख, सौभाग्यदुर्भाग्य, सम्पत्ति-विपत्ति आदि जीवों के पूर्वकृत्त कर्मों के ही फल हैं। अपने द्वारा उपार्जित कर्मों के सित्राय जी को दूसरा कोई भी सुख - दुःख देने वाला नहीं है । इस प्रकार कर्मविषयक चिन्तन में मन को एकाग्र करना विपाकविचय धर्मध्यान है ।