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के पास पहुँचते थे। तथागत बुद्ध के पास भी इस प्रकार के प्रश्न को लेकर अनेक जिज्ञासु पहुँचते रहे, पर तथागत बुद्ध उन प्रश्नों को अव्याकृत कहकर टालते रहते थे । मज्झिमनिकाय ' में जिन प्रश्नों को तथागत ने अव्याकृत कहा था, वे ये हैं—
१. क्या लोक शाश्वत है ? २. क्या लोक अशाश्वत है ? ३. क्या लोक अन्तमान है ? ४. क्या लोक अनन्त है ? ५. क्या जीव और शरीर एक है ? ६. क्या जीव और शरीर भिन्न हैं ? ७. क्या मरने के बाद तथागत नहीं होते ? ८. क्या मरने के बाद तथागत होते भी हैं और नहीं भी होते ? ९. क्या मरने के बाद तथागत न होते हैं। और न नहीं होते है ?
इन प्रश्नों के उत्तर में विधान के रूप में बुद्ध ने कुछ भी नहीं कहा है। उनके मन में सम्भवतः यह विचार रहा होगा कि यदि मैं लोक और जीव को नित्य कहता हूँ तो उपनिषद् का शाश्वतवाद मुझे मानना पड़ेगा। यदि मैं अनित्य कहता हूँ तो चार्वाक का भौतिकवाद स्वीकार करना पड़ेगा। उन्हें शाश्वतवाद और उच्छेदवद दोनों पसन्द नहीं थे, इसीलिये ऐसे प्रश्नों को अव्याकृत, स्थापित, प्रतिक्षिप्त कह दिया कि लोक अशाश्वत हो या • शाश्वत, जन्म है ही, मरण है ही। मैं तो इन्हीं जन्म-मरण के विघात को बताता हूँ । यही मेरा व्याकृत है और इसी में तुम्हारा हित है। इस तरह बुद्ध ने अशाश्वतानुच्छेदवाद स्वीकार किया है। इसका भी यह कारण था कि उस युग में जो वाद थे उन वादों में उनको दोष दृग्गोचर हुए, अतएव किसी वाद का अनुयायी होना उन्हें श्रेयस्कर नहीं लगा। पर महावीर ने उन वादों के गुण और दोष दोनों देखे। जिस वाद में जितनी सचाई थी, उतनी मात्रा में स्वीकार कर, सभी वादों का समन्वय करने का प्रयास किया। तथागत बुद्ध जिन प्रश्नों का उत्तर विधि रूप में देना पसन्द नहीं करते थे, उन सभी प्रश्नों का उत्तर भगवान् महावीर ने अनेकान्तवाद के रूप में प्रदान किया। प्रत्येक वाद के पीछे क्या दृष्टिकोण रहा हुआ है, उस वाद की मर्यादा क्या है, इस बात को नयवाद के रूप में दार्शनिकों के सामने प्रस्तुत किया। तथागत बुद्ध ने लोक की सान्तता और अनन्तता दोनों को अव्याकृत कोटि में रखा है, जब कि भगवान् महावीर ने लोक को सान्त और अनन्त अपेक्षाभेद से बताया ।
इसी तरह लोक शाश्वत है या अशाश्वत है ? यह प्रश्न भगवतीसूत्र, शतक ९, उद्देशक ६ में गणधर गौतम जमाली को पूछा। प्रश्न सुन कर जमाली सकपका गये। तब भगवान् महावीर ने कहा— लोक शाश्वत है और अशाश्वत भी है। तीनों कालों में ऐसा एक भी समय नहीं जब लोक किसी न किसी रूप में न हो । अतः वह शाश्वत है। लोक हमेशा एक रूप नहीं रहता है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के कारण अवनति और उन्नति होती रहती है। इसलिये वह अशाश्वत भी है। भगवान् महावीर ने लोक को पंचास्तिकाय रूप माना । जीव और शरीर के भेदाभेद पर भी अनेकान्तवाद की दृष्टि से जो समाधान किया है, वह भी अपूर्व है। उन्होंने आत्मा को शरीर से भिन्न और अभिन्न दोनों कहा है। किन्तु बुद्ध इस सम्बन्ध में भी स्पष्ट नहीं हो सके । उनका अभिमत था— यदि शरीर को आत्मा से भिन्न मानते हैं तब ब्रह्मचर्यवास सम्भव नहीं, यदि अभिन्न मानते हैं तो भी ब्रह्मचर्यवास सम्भव
१.
२.
३.
मज्झिमनिकाय, चूलमालुंक्यसुत्त, ६३
आगम युग का जैनदर्शन, पं. दलसुख मालवणिया, पृ. ६०-६१
"तं जीवं तं सरीरं ति भिक्खु, दिड्डिया सति ब्रह्मचरियवासो न होति । अञ्ञ जीवं अञ्ञ सरीरं ति वा भिक्खु, दिट्टिया ब्रह्मचरियवासो न होति। एते ते भिक्खु, उभो अन्ते अनुपगम्म मज्ज्ञेन यथागतो धम्मं देसेति" – संयुक्त XII १३५
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