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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र निरुपक्लेश (शोकादि उपक्लेशों से रहित), (५) अनाश्रवकर (आश्रवों से रहित), (६) अच्छविकः (स्वपर को पीड़ा न देने वाला) और (७) अभूताभिशंकित (जीवों को शंकित या भयभीत न करने वाला)।
२२७. से किं तं अप्पसत्थमणविणए ?
अप्पसत्थमणविणए सत्तविधे पन्नत्ते, तं जहा-पावए सावज्जे सकिरिए सउवक्केसे अण्हयकरे छविकरे भूयाभिसंकणे। से तं अप्पसत्थमणविणए। से तं मणविणए।
[२२७ प्र.] अप्रशस्तमनोविनय कितने प्रकार का है ?
[२२७ उ.] (गौतम!) अप्रशस्तमनोविनय भी सात प्रकार का कहा गया है। यथा—पापक (पापकारी), सावध, सक्रिय (कायिकी आदि क्रियाओं से युक्त), सोपक्लेश, आश्रवकारी, छविकारी (प्राणियों को या स्वपर को पीड़ा उत्पन्न करने वाला) और भूताभिशंकित (प्राणियों के मन में भय उत्पन्न करने वाला)।
यह हुआ अप्रशस्तमनोविनय का वर्णन । २२८. से किं तं वइविणए ? वइविणए दुविधे पन्नत्ते, तं जहा—पसत्थवइविणए य अप्पसत्थवइविणए य। [२२८ प्र.] (भगवन् !) वचनविनय कितने प्रकार का है ? [२२८ उ.] (गौतम!) वचनविनय दो प्रकार का है। यथा—प्रशस्तवचनविनय और अप्रशस्तवचनविनय। २२९. से किं तं पसत्थवइविणए ?
पसत्थवइविणए सत्तविधे पन्नत्ते, तं जहा—अपावए जाव अभूयाभिसंकणे। से त्तं पसत्थ- . वइविणए।
[२२९ प्र.] वह प्रशस्तवचनविनय कितने प्रकार का है ?
[२२९ उ.] (गौतम!) प्रशस्तवचनविनय सात प्रकार का कहा है। यथा—अपापक (पापरहित), असावद्य यावत् अभूताभिशंकित। .
२३०. से किं तं अप्पसत्थवइविणए ?
अप्पसत्थवइविणए सत्तविधे पन्नत्ते, तं जहा—पावए सावजे जाव भूयाभिसंकणे। से तं अप्पसत्थवइविणए। से त्तं वइविणए।
[२३० प्र.] (भगवन् !) अप्रशस्तवचनविनय कितने प्रकार का है ?
[२३० उ.] (गौतम!) अप्रशस्तवचनविनय सात प्रकार का कहा है। यथा—पापक, सावद्य यावत् भूताभिशंकित।
२३१. से किं तं कायविणए ? कायविणए दुविधे पन्नत्ते, तं जहा—पसत्थकायविणए य अप्पसत्थकायविणए य।