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________________ [४९९ पच्चासवां शतक : उद्देशक-७] प्रतिसंलीनता, ये छह बाह्यतप कहलाते हैं। ये बाह्य द्रव्यादि की अपेक्षा रखते हैं और प्रायः बाह्यशरीर को तपाते हैं, अर्थात् शरीर पर इनका अधिक प्रभाव पड़ता है। इन तपश्चर्याओं को करने वाला लोकव्यवहार में 'तपस्वी' के रूप में प्रसिद्ध हो जाता है। अन्यतीर्थिकजन भी स्वाभिप्रायानुसार इन तपश्चर्याओं को अपनाते हैं; इन और ऐसे कारणों से ये तपश्चरण बाह्यतप कहलाते हैं। ये बाह्यतप मोक्षप्राप्ति के बाह्य अंग हैं। षड्विध आभ्यन्तर तप के नाम-निर्देश २१७. से किं तं अभितरए तवे ? अभितरए तवे छव्विहे पन्नत्ते, तं जहा—पायच्छित्तं १ विणओ २ वेयावच्चं ३ सज्झायो ४ झाणं ५ विओसग्गो ६। [२१७ प्र.] (भगवन् ! ) वह आभ्यन्तर तप कितने प्रकार का है ? [२१७ उ.] (गौतम ! ) आभ्यन्तर तप छह प्रकार का कहा है। यथा—(१) प्रायश्चित्त, (२) विनय, (३) वैयावृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान और (६) व्युत्सर्ग। विवेचन -आभ्यन्तर तप का स्वरूप—जिस तप का सम्बन्ध आत्मा के भावों (आन्तरिक परिणामों) के साथ हो, उसे आभ्यन्तर तप कहा गया है। उपर्युक्त छह आभ्यन्तर तपों का आत्मा के परिणामों के साथ सीधा सम्बन्ध है। प्रायश्चित्त तप के दश भेद २१८. से किं तं पायच्छित्ते ? पायच्छित्ते दसविधे पन्नत्ते, तं जहा—आलोयणारिहे जाव पारंचियारिहे। से त्तं पायच्छित्ते। . [२१८ प्र.] (भगवन् !) प्रायश्चित्त कितने प्रकार का है ? __ [२१८ उ.] (गौतम!) प्रायश्चित्त दस प्रकार का कहा है। यथा—आलोचनार्ह (से लेकर) यावत् पारांचिकाह। यह हुआ प्रायश्चित्त तप। विवेचन—प्रायश्चित्त : स्वरूप और तद्विषयक ५० बोल-मूलगुण और उत्तरगुण-विषयक अतिचारों से मलिन हुई आत्मा जिस अनुष्ठान से शुद्ध हो, अथवा जिस अनुष्ठान से पाप की शुद्धि हो, उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। कहा भी है— 'प्रायः पापं विजानीयात्, चित्तं तस्य विशोधनम्।' प्रायः का अर्थ है—पाप और चित्त का अर्थ है—उसकी विशुद्धि। प्रायश्चित्त से सम्बन्धित पचास बोल इस प्रकार हैं—आलोचनार्ह आदि दस प्रकार का प्रायश्चित्त, आकम्प्य आदि आलोचना के दस दोष, दर्प, प्रमाद आदि प्रायश्चित्त-सेवन से दस कारण, फिर प्रायश्चित्त देने वाले के आचारवान् आदि दस गुण १. भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. ७, पृ. ३५०७
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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